METHODS OF EDUCATIONAL PSYCHOLOGY | शिक्षा मनोविज्ञान की विधियाँ

शिक्षा मनोविज्ञान की विधियाँ / METHODS OF EDUCATIONAL PSYCHOLOGY:- शिक्षा मनोविज्ञान मनोविज्ञान की एक प्रयुक्त शाखा (applied branch) है। शिक्षा मनोविज्ञान का सबसे मुख्य उद्देश्य शिक्षकों के आवश्यक कौशल (skills) तथा क्षमताओं (competencies) को इस लायक बनाना है कि वे विभिन्न शैक्षिक स्तरों (educational levels) पर शिक्षार्थियों (learners) के व्यवहारों को समझ सकें, नियंत्रित कर सकें तथा उसके बारे में पूर्वकथन (prediction) कर सके। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए शिक्षा मनोवैज्ञानिक अपनी विभिन्न विधियों (methods) द्वारा शिक्षार्थियों के व्यवहारों से संबंधित समस्याओं का अध्ययन करने के लिए आँकड़ों का संग्रह करता है। इन विधियों में निम्नांकित विधियाँ अधिक महत्त्वपूर्ण हैं- ये सभी विधि जो नीचे दिए गए है   में आती है

शिक्षा मनोविज्ञान की विधियाँ

[METHODS OF EDUCATIONAL PSYCHOLOGY]

 

METHODS OF EDUCATIONAL PSYCHOLOGY

अंतर्निरीक्षण विधि (Introspection Method)

 

अंतर्निरीक्षण विधि संरचनावादियों (structuralists) की विधि थी। इस विधि का उपयोग बेट (Wundt), टिचेनर (Titchener), स्टाउट (Stout), विलियम जेम्स (William Jarmes) आदि मनोवैज्ञानिकों द्वारा चेतन अनुभूति (conscious experience) के तत्त्वों का अध्ययन करने के लिए किया गया था। अंतर्निरीक्षण (introspection) का अर्थ होता है आत्म-निरीक्षण (self-observation) । इस तरह से यह कहा जा दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अंतर्निरीक्षण विधि में व्यक्ति अपने भीतर झाँकता (looke (within) है तथा अपनी मनोदशा का स्वयं निरीक्षण या अध्ययन करता सकता है कि अंतर्निरीक्षण विधि शिक्षा मनोविज्ञान की एक ऐसी विधि है जिसमें शिक्षक या शिक्षार्थी (learner) अपनी मनोदशा का एक विधिवत अध्ययन या निरीक्षण स्वयं करता है। उदाहरणार्थ, यदि कोई शिक्षार्थी किसी कविता को पढ़ने के बाद यह कहता है कि कविता सरस एवं मधुर है, तो यह अंतर्निरीक्षण का एक उदाहरण होगा, क्योंकि यहाँ शिक्षार्थी कविता पढ़ने से उत्पन्न मनोदशा का निरीक्षण स्वयं करके यह बता रहा है कि उसे कविता सरस एवं मधुर लगी स्पष्टत किसी भी अंतर्निरीक्षण में तीन अवस्थाएँ (stages) होती है जो निम्नांकित हैं

(i) अंतर्निरीक्षण में व्यक्ति किसी बाह्य वस्तु (जैसे ऊपर के उदाहरण में कविता) पर ध्यान देत है तथा उसका सही-सही प्रत्यक्षण करता है।

(ii) बाह्य वस्तु पर ध्यान देने से व्यक्ति में एक विशेष प्रकार की मनोदशा (mental state) उत्पन्न होती है।

(iii) उत्पन्न मनोदशा का व्यक्ति स्वयं विधिवत अध्ययन या निरीक्षण करके बताता है। जैसे उपर्युक्त उदाहरण में व्यक्ति द्वारा यह कहा जाना कि कविता से उसमें सरसता एवं मधुरता का भाव उत्पन्न हो रहा है।

अंतर्निरीक्षण विधि के कुछ गुण (merits) तथा दोष (demerits) बताए गए हैं। इस विधि के प्रमुख गुण निम्नलिखित है

(i) अंतर्निरीक्षण विधि द्वारा बालकों तथा वयस्कों की मनोदशा (mental state) के बारे में सीधे सूचना प्राप्त होती है। स्कूल में स्कूली वातावरण का प्रभाव तथा शिक्षक द्वारा की गई सख्ती या दिखाई गई नम्रता का प्रभाव शिक्षार्थियों (learners) पर किस ढंग का पड़ रहा है, इसका शिक्षार्थियों द्वारा किए गए अंतर्निरीक्षण से सीधे पता चल जाता है। अतः शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में अल्पतम समय में शिक्षार्थियों की मनोदशा का अध्ययन करने के लिए इससे कोई दूसरी अधिक उपयोगी विधि नहीं हो सकती है।

(ii) अंतर्निरीक्षण विधि एक सरल विधि है जिसका प्रयोग किसी भी समय शिक्षक तथा शिक्षार्थी अपनी मानसिक दशा (mental state) का अध्ययन करने के लिए कर सकते हैं।

(iii) अंतर्निरीक्षण विधि से प्राप्त सूचना अधिक विश्वसनीय (reliable) होती है, क्योंकि इसमें शिक्षक तथा शिक्षार्थी (learner) अपनी मनोदशा का अध्ययन स्वयं निष्पक्ष भाव से करके बताते है।

(iv) अंतर्निरीक्षण विधि का ऐतिहासिक महत्त्व (historical importance) भी है। अंतर्निरीक्षण विधि के प्रयोग से बहुत सारे ऐसे शोध (researches) किए गए हैं जिनसे और अधिक वस्तुनिष्ठ विधियों (objective methods) का जन्म शिक्षा मनोविज्ञान में हो पाया है। आज भी अंतर्निरीक्षण विधि सभी तरह के प्रयोगात्मक अध्ययनों (experimental studies) का आधार बनी हुई है।

उपर्युक्त गुणों के साथ-साथ अंतर्निरीक्षण विधि के कुछ अवगुण (demerits) भी हैं जो निम्नांकित हैं

(i) अंतर्निरीक्षण विधि में शिक्षक या शिक्षार्थी (learner) अपनी मनोदशा (mental state) का अध्ययन स्वयं करते है। आलोचकों का मत है कि व्यक्ति की मनोदशा स्थिर (constant) नहीं होती है, बल्कि एक क्षण से दूसरे क्षण परिवर्तित होती रहती है। ऐसी हालत में कोई भी शिक्षक या शिक्षार्थी अपनी मनोदशा का कहाँ तक सही-सही निरीक्षण कर पाएगा, यह तो स्पष्ट ही है। उदाहरणस्वरूप, एक क्रोधित शिक्षार्थी अपने क्रोध की अवस्था का निरीक्षण करना यदि शुरू करता है तो उसका क्रोध ही समाप्त हो जाएगा और उसकी जगह कोई दूसरी मनोदशा उत्पन्न हो जाएगी।

(ii) अंतर्निरीक्षण विधि में व्यक्ति को अपनी मनोदशा (mental state) का निरीक्षण भी करना पड़ता है तथा साथ-ही-साथ उसका संचालन भी करना पड़ता है। इस तरह से व्यक्ति का ध्यान (attention) दो भागों में बँट जाता है- एक ओर उसे मनोदशा का प्रेक्षण या निरीक्षण करना होता है तो दूसरी ओर उसी समय व्यक्ति अपनी मनोदशा को बाह्य वस्तु की ओर संचालित भी रखता है। इसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति द्वारा किया गया निरीक्षण दोषपूर्ण (defective) हो जाता है, क्योंकि सही अर्थों में उसके लिए यह संभव नहीं है कि वह एक ही समय अपना ध्यान मनोदशा के संचालन में भी लगाए तथा साथ-ही-साथ उसके निरीक्षण में भी लगाए।

(iii) अंतर्निरीक्षण विधि द्वारा संग्रह किए गए आँकड़ों में आत्मनिष्ठता (subjectivity) अधिक होती है। इन आँकड़ों की विश्वसनीयता की जाँच करने की कोई विधि नहीं है। उदाहरणार्थ, शिक्षक द्वारा शिक्षार्थी (learner) की उत्तरपुस्तिका का मूल्यांकन होने पर शिक्षार्थी में सचमुच खुशी हो रही है या नाखुशी, इसका अंदाजा दूसरे को कैसे हो सकता है? शिक्षार्थी जो कहेगा उसे सत्य मानकर आगे की प्रक्रिया की जाएगी। संभव है कि वह नाखुश हो, परंतु यह कहे कि उसे खुशी हो रही है। अस्पष्ट: अंतर्निरीक्षण विधि से संग्रह किए गए आँकड़ों में आत्मनिष्ठता का तत्त्व काफी अधिक होता है।

(iv) अंतर्निरीक्षण विधि का प्रयोग अत्यंत छोटे शिशुओं, मानसिक रूप से मंदित बच्चो (mentally retarded children) तथा असामान्य व्यक्तियों (abnormal people) के व्यवहारों के अध्ययन में करना संभव नहीं है, क्योंकि ऐसी श्रेणी के लोग अपनी मनोदशा का अध्ययन स्वयं करते में सर्वथा असमर्थ रहते हैं।

(v) गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिको (Gestalt psychologists) ने अंतर्निरीक्षण विधि की आलोचना करते हुए कहा है कि चूंकि इस विधि में व्यक्ति अपनी मनोदशा (mental state) या चेतन अनुभूति का विश्लेषण कई खंडों में, जैसे संवेदन (sensation), भाव (feeling) तथा प्रतिमा (images) आदि में बाँटकर करता है, अतः इस विधि द्वारा व्यक्ति की मनोदशा का एकात्मक स्वरूप (unitary nature) की व्याख्या नहीं हो पाती है और प्रत्येक खंड के रूप में मनोदशा का किया गया वर्णन पूरी मनोदशा के किए गए वर्णन से सर्वथा भिन्न होता है। अतः इससे भी इस विधि की विश्वसनीयता पर आँच आती है।

(vi) अंतर्निरीक्षण विधि में अंतरप्रेक्षक विश्वसनीयता (interobserver reliability) को काफी कमी होती है। अगर एक ही तरह की मनोदशा का निरीक्षण एक ही परिस्थिति में भिन्न-भिन्न अंतर्निरीक्षको (introspectionists) द्वारा किया जाता है, तो निष्कर्ष एकसमान न होकर अलग अलग हो जाता है। फलस्वरूप इस विधि द्वारा प्राप्त परिणाम अधिक विश्वसनीय नहीं रह जाता है।

इस तरह, स्पष्ट है कि अंतर्निरीक्षण विधि में कई अवगुण भी सम्मिलित हैं। यही कारण है कि शिक्षा मनोविज्ञान में इस विधि का उपयोग एक स्वतंत्र विधि के रूप में नहीं, बल्कि एक सहायक विधि के रूप में किया जाता है।

 वस्तुनिष्ठ निरीक्षण या प्रेक्षण विधि (Objective Observation Method)

 

वस्तुनिष्ठ निरीक्षण या प्रेक्षण विधि का प्रतिपादन व्यवहारवादियों (behaviourists) द्वारा किया गया। इस विधि के प्रतिपादन से अंतर्निरीक्षण विधि पर जोरदार धक्का पहुँचा और एक तरह से यदि यह कहा जाए कि अंतर्निरीक्षण विधि बहुत हद तक वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण विधि द्वारा प्रतिस्थापित हो गई तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण विधि वह विधि है जिसमें व्यवहार (behaviour) या घटना को देखकर उसका क्रमबद्ध रूप से (systematically) अध्ययन किया जाता है। इस विधि का उपयोग शिक्षा मनोविज्ञान (educational psychology) में काफी किया जाता है। प्रायः शिक्षार्थियों (learners) के व्यवहारों का निरीक्षण या प्रेक्षण (observation) करके उनकी अभिरुचि (interest), अभिक्षमता (aptitude) तथा क्तित्व के कुछ खास शीलगुणों का पता लगाया जाता है। शिक्षा मनोविज्ञान में वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण की विधि का दो तरह से प्रयोग किया जाता है—

(1) शिक्षार्थियों (leamers) को एक खास समय तक प्रेक्षक (observer) के सामने रखा जाता है। तथा उसे उस खास अवधि में कुछ क्रियाएँ करने को कहा जाता है। इन क्रियाओं को प्रेक्षक क्रमबद्ध रूप से लिखता जाता है और बाद में उसका विश्लेषण करके शिक्षार्थी के बारे में एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचता है।

(ii) वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण विधि का उपयोग शिक्षार्थियों की अभिरुचि, अभिक्षमता (aptitude) तथा मानसिक क्षमताओं (mental abilities) का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए भी किया जाता है। प्रेक्षक शिक्षार्थियों के दो समूह की अभिक्षमता, जैसे यांत्रिक अभिक्षमता (mechanical aptitude) का प्रेक्षण कर इन दोनों समूह का एक तुलनात्मक अध्ययन करके इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है कि कौन-सा समूह अभिक्षमता में अधिक श्रेष्ठ (superior) है।

यूँ तो वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण के कई प्रकार है, परंतु इनमें निम्नांकित दो तरह के प्रेक्षण का उपयोग शिक्षा मनोविज्ञान में काफी अधिक होता है

(क) स्वाभाविक प्रेक्षण (Natural Observation )

 

इस तरह के प्रेक्षण में प्रेक्षक शिक्षार्थियों (learners) का प्रेक्षण एक स्वाभाविक परिस्थिति, जैसे खेल का मैदान, कक्षा की परिस्थिति आदि में करता है। सामान्यतः इस तरह के प्रेक्षण में शिक्षार्थियों को यह पता नहीं होता है कि उनके व्यवहारों का निरीक्षण किसी प्रेक्षक द्वारा किया जा रहा है। फलतः वे अपने व्यवहारों में स्वाभाविकता बनाए रखते हैं और प्रेक्षक उन व्यवहारों का प्रेक्षण चुपचाप करते जाता है। अतः वह इन सभी व्यवहारों का विश्लेषण करके एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचता है। जैसे प्रेक्षक दूर से ही बैठे-बैठे बच्चों के समूह द्वारा खेल के मैदान में किए गए व्यवहारों का प्रेक्षण कर इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है कि अमुक शिक्षार्थी अधिक आक्रामक (aggressive) स्वभाव का है तथा अमुक शिक्षार्थी दब्बू प्रकृति का है।

(ख) सहभागी प्रेक्षण (Participative Observation)

 

इस तरह के प्रेक्षण का भी प्रयोग शिक्षा मनोविज्ञान में काफी होता है। क्रौनबैक (Cronbach, 1990) ने सहभागी प्रेक्षण की विधि का प्रयोग शिक्षार्थियों की अभिक्षमता (aptitude) तथा अभिरुचि (interest) का पता लगाने में सफलतापूर्वक किया है। इस विधि में प्रेक्षक शिक्षार्थियों को क्रियाओं में स्वयं हाथ बॅटाता है और उसके व्यवहारों का प्रेक्षण भी करता जाता है। सचाई यह है कि यहाँ प्रेक्षक का उद्देश्य व्यवहारों का ठीक ढंग से वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण करना होता है और उसी उद्देश्य से वह शिक्षार्थी के समूह की क्रियाओं में हाथ बँटाता है। प्रायः प्रेक्षक शिक्षार्थियों के व्यवहार के हर पहलू के बारे में अपना विस्तृत रिकार्ड (record) तैयार करता है और बाद में उसका विश्लेषण कर एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचता है।

प्रेक्षण का चाहे जो भी प्रकार (types) हो, यह आवश्यक है कि प्रेक्षक अपने कार्य में निपुण तथा प्रशिक्षित (trained) हो, अन्यथा प्रेक्षण अर्थपूर्ण नहीं हो सकेगा।

प्रेक्षण विधि के कुछ गुण (merits) तथा सीमाएँ (limitations) है। इसके प्रमुख गुण निम्नांकित है –

(i) वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण विधि का सबसे प्रमुख गुण यह है कि यह वस्तुनिष्ठ तथा अवैयक्तिक होता है। इस विधि द्वारा वस्तुनिष्ठ रूप से शिक्षार्थियों (learners) की मनोवृत्ति, अभिक्षमता, मानसिक योग्यता का प्रेक्षण कर एक बैच (valid) तथा विश्वसनीय (reliable) निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है, जो अंतर्निरीक्षण विधि द्वारा संभव नहीं।

(ii) वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण विधि में अंतप्रेक्षक विश्वसनीयता (interobserver reliability) अधिक होती है। अगर कई प्रेक्षक एकसाथ मिलकर शिक्षार्थी की किसी अभिक्षमता (aptitude) प्रदर्शित करनेवाले व्यवहारों का प्रेक्षण करते हैं, तो उनमें अकसर काफी सहमति पाई जाती है जिससे इस विधि के परिणाम की वैधता (validity) तथा विश्वसनीयता (reliability) अधिक बढ़ जाती है। (ii) इस विधि से समय तथा श्रम दोनों की काफी बचत होती है, क्योंकि एकसाथ ही प्रेक्षक कई शिक्षार्थियों की क्षमताओं, अभिरुचियों तथा मानसिक क्षमताओं का अध्ययन कर लेते हैं।

(iv) इस विधि द्वारा सामान्य बच्चों की मानसिक क्षमता, व्यक्तित्व, अभिरुचि, चिंतन आदि का तो अध्ययन किया हो जाता है. साथ ही साथ असाधारण बालको (exceptional children) जैसे प्रतिभाशाली बालक (gifted children), मंदबुद्धि बालक (mentally retarded children), शारीरिक रूप से विकलांग बालक (physically handicapped children) तथा अन्य दूसरे तरह के बालक जैसे पिछड़े बालक (backward children), समस्या बालक (problem children) तथा अपराधी बालक (delinquent children) का भी अध्ययन सरलतापूर्वक संभव हो पाता है।

(v) इस विधि का एक अन्य गुण यह बताया गया है कि इसके द्वारा एक ही उम्र के बालको या बालिकाओं का तुलनात्मक अध्ययन (comparative study) आसानी से किया जा सकता है। प्रेक्षक बालको या बालिकाओं की मानसिक क्षमता, शारीरिक क्षमता, सामाजिक कौशल (social skills) आदि का तुलनात्मक प्रेक्षण कर आसानी से एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँच सकते है।

इन गुणों के बावजूद इस विधि की कुछ सीमाएँ है जो निम्नांकित है।

(i) वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण विधि (objective observation method) की सफलता के लिए अन्य बातों के अलावा एक प्रशिक्षित (trained) तथा कुशल प्रेक्षक का होना अनिवार्य है। प्रायः देखा गया है कि प्रेक्षक इस उच्च सीमा तक प्रशिक्षित नहीं होते हैं और वे अपने प्रेक्षण में तरह-तरह की भूले (errors) कर बैठते हैं। इससे प्रेक्षण विधि को विश्वसनीयता समाप्त हो जाती है।

(ii) वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण विधि में प्रायः प्रेक्षण का कार्य एक अनियंत्रित परिस्थिति (uncontrolled situation) में किया जाता है। परिस्थिति अनियंत्रित होने के कारण प्रेक्षक द्वारा निरीक्षण किए जानेवाले व्यवहार कई कारकों या चरों (variables) द्वारा प्रभावित होते रहते हैं। ऐसी परिस्थिति में प्रेक्षक के लिए यह निश्चित करना संभव नहीं हो पाता कि बालकों या वयस्को के व्यवहार में होनेवाला अमुक परिवर्तन का कारण कौन-सा है। फलतः वे निश्चित होकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने में असमर्थ रहते हैं।

(iii) वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण की विधि में प्रेक्षक के निजी पूर्वाग्रह (prejudice). पक्षपात (bias) आदि का प्रभाव प्रेक्षण पर पड़ता है, जिससे उसका प्रेक्षण दोषपूर्ण होता है। उदाहरणस्वरूप, जब कोई शिक्षक किसी शिक्षार्थी (learner) या छात्र से वर्ग में अधिक खुश रहते हैं तथा उसको कई कारणों से अधिक दुलार प्यार देते हैं, तो उस छात्र के बुरे व्यवहार को भी उस शिक्षक द्वारा अच्छा कहा जाता है। और किसी-न-किसी ढंग से उसकी प्रशंसा की जाती हैं। दूसरी तरफ, यदि शिक्षक अमुक शिक्षार्थी या छात्र से वर्ग में नाखुश रहते हैं, तो उस छात्र के अनुशासित रहने पर भी शिक्षक उसके व्यवहार में में दोष निकाल ही लेते हैं और उसे सजा देने को तैयार हो जाते हैं। स्पष्ट है कि प्रेक्षण विधि में प्रेक्षक मानसिक योग्यता का प्रेक्षण कर एक बैच (valid) तथा विश्वसनीय (reliable) निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है, जो अंतर्निरीक्षण विधि द्वारा संभव नहीं।

(ii) वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण विधि में अंतप्रेक्षक विश्वसनीयता (interobserver reliability) अधिक होती है। अगर कई प्रेक्षक एकसाथ मिलकर शिक्षार्थी की किसी अभिक्षमता (aptitude) प्रदर्शित करनेवाले व्यवहारों का प्रेक्षण करते हैं, तो उनमें अकसर काफी सहमति पाई जाती है जिससे इस विधि के परिणाम की वैधता (validity) तथा विश्वसनीयता (reliability) अधिक बढ़ जाती है।

(ii) इस विधि से समय तथा श्रम दोनों की काफी बचत होती है, क्योंकि एकसाथ ही प्रेक्षक कई शिक्षार्थियों की क्षमताओं, अभिरुचियों तथा मानसिक क्षमताओं का अध्ययन कर लेते हैं।

(iv) इस विधि द्वारा सामान्य बच्चों की मानसिक क्षमता, व्यक्तित्व, अभिरुचि, चिंतन आदि का तो अध्ययन किया हो जाता है. साथ ही साथ असाधारण बालको (exceptional children) जैसे प्रतिभाशाली बालक (gifted children), मंदबुद्धि बालक (mentally retarded children), शारीरिक रूप से विकलांग बालक (physically handicapped children) तथा अन्य दूसरे तरह के बालक जैसे पिछड़े बालक (backward children), समस्या बालक (problem children) तथा अपराधी बालक (delinquent children) का भी अध्ययन सरलतापूर्वक संभव हो पाता है।

(v) इस विधि का एक अन्य गुण यह बताया गया है कि इसके द्वारा एक ही उम्र के बालको या बालिकाओं का तुलनात्मक अध्ययन (comparative study) आसानी से किया जा सकता है। प्रेक्षक बालको या बालिकाओं की मानसिक क्षमता, शारीरिक क्षमता, सामाजिक कौशल (social skills) आदि का तुलनात्मक प्रेक्षण कर आसानी से एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँच सकते है।

इन गुणों के बावजूद इस विधि की कुछ सीमाएँ है जो निम्नांकित है

(i) वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण विधि (objective observation method) की सफलता के लिए अन्य बातों के अलावा एक प्रशिक्षित (trained) तथा कुशल प्रेक्षक का होना अनिवार्य है। प्रायः देखा गया है कि प्रेक्षक इस उच्च सीमा तक प्रशिक्षित नहीं होते हैं और वे अपने प्रेक्षण में तरह-तरह की भूले (errors) कर बैठते हैं। इससे प्रेक्षण विधि को विश्वसनीयता समाप्त हो जाती है।

(ii) वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण विधि में प्रायः प्रेक्षण का कार्य एक अनियंत्रित परिस्थिति (uncontrolled situation) में किया जाता है। परिस्थिति अनियंत्रित होने के कारण प्रेक्षक द्वारा निरीक्षण किए जानेवाले व्यवहार कई कारकों या चरों (variables) द्वारा प्रभावित होते रहते हैं। ऐसी परिस्थिति में प्रेक्षक के लिए यह निश्चित करना संभव नहीं हो पाता कि बालकों या वयस्को के व्यवहार में होनेवाला अमुक परिवर्तन का कारण कौन-सा है। फलतः वे निश्चित होकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने में असमर्थ रहते हैं।

(iii) वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण की विधि में प्रेक्षक के निजी पूर्वाग्रह (prejudice). पक्षपात (bias) आदि का प्रभाव प्रेक्षण पर पड़ता है, जिससे उसका प्रेक्षण दोषपूर्ण होता है। उदाहरणस्वरूप, जब कोई शिक्षक किसी शिक्षार्थी (learner) या छात्र से वर्ग में अधिक खुश रहते हैं तथा उसको कई कारणों से अधिक दुलार प्यार देते हैं, तो उस छात्र के बुरे व्यवहार को भी उस शिक्षक द्वारा अच्छा कहा जाता है। और किसी-न-किसी ढंग से उसकी प्रशंसा की जाती हैं। दूसरी तरफ, यदि शिक्षक अमुक शिक्षार्थी या छात्र से वर्ग में नाखुश रहते हैं, तो उस छात्र के अनुशासित रहने पर भी शिक्षक उसके व्यवहार में में दोष निकाल ही लेते हैं और उसे सजा देने को तैयार हो जाते हैं। स्पष्ट है कि प्रेक्षण विधि में प्रेक्षक
की अपनी पूर्वधारणा या पक्षपात का प्रभाव प्रेक्षण पर काफी पड़ता है, जिससे प्रेक्षण दोषपूर्ण हो सकता है।

(iv) वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण विधि का उपयोग केवल बादा व्यवहारों (overt behaviours) के अध्ययन में किया जाता है और इसी बाजा व्यवहार के प्रेक्षण के आधार पर व्यक्ति की आंतरिक मानसिक प्रक्रियाओं के बारे में सही-सही अंदाज लगाया जाता है। परंतु, ऐसा करना हमेशा यथार्थ सिद्ध नहीं होता। जैसे शिक्षक किसी छात्र की अच्छी भाषा-शैली एवं लिखने का ढंग देखकर यदि यह अंदाज लगा लेते हैं कि यह तीव्र बुद्धि का छात्र है, तो उनका इस निष्कर्ष पर पहुँचना सही ही होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं। कहने का तात्पर्य यह है कि वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण विधि के आधार पर अतिरिक मानसिक प्रक्रियाओं का यथार्थ ढंग से अध्ययन करना संभव नहीं है।

इस तरह स्पष्ट है कि वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण विधि की कुछ सीमाएँ भी है। इन सीमाओं के बावजूद यह विधि शिक्षा मनोविज्ञान (educational psychology) के लिए काफी महत्वपूर्ण बताई गई है। इस विधि का उपयोग प्रायः शिक्षा मनोवैज्ञानिकों द्वारा शिक्षार्थियों (learners) की समस्याओं का, विशेषकर कक्षा (classroom) तथा खेल के मैदानों में उत्पन्न होनेवाली समस्याओं का अध्ययन करने में किया जाता है।

प्रयोगात्मक विधि (Experimental Method)

 

शिक्षा मनोविज्ञान में प्रयोगात्मक विधि सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विधि मानी गई है। प्रयोगात्मक विधि में शिक्षक या प्रयोगकर्ता छात्रों के व्यवहारों का अध्ययन एक नियंत्रित परिस्थिति (controlled situation) में करते हैं। नियंत्रित परिस्थिति से तात्पर्य एक ऐसी परिस्थिति से होता है जिसमें स्वतंत्र चर’ (independent variable) में खुलकर जोड़-तोड़ (manipulation) करना संभव हो तथा साथ ही साथ अन्य सभी दूसरे तरह के घर जिनका प्रभाव आश्रित चर (dependent (variable) पर पड़ सकता है, नियंत्रित हो। नियंत्रित अवस्था किसी प्रयोगशाला में भी उत्पन्न की जा सकती है या वास्तविक परिस्थिति (real situation) में भी जब प्रयोग की नियंत्रित अवस्था किसी प्रयोगशाला में उत्पन्न की जाती है, तब इस तरह के प्रयोग को प्रयोगशाला प्रयोग (laboratory experiment) तथा जब प्रयोग की नियंत्रित अवस्था वास्तविक परिस्थिति या क्षेत्र (field) में उत्पन्न की जाती है, तब इस तरह के प्रयोग को क्षेत्र प्रयोग (field experiment) कहा जाता है। शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में शिक्षक प्रयोगशाला प्रयोग तथा क्षेत्र प्रयोग, दोनों ही करते हैं।

मनोवैज्ञानिक प्रयोग (psychological experiment) का आधार प्रयोगात्मक डिजाइन (experimental design) होता है। प्रयोगात्मक डिजाइन से तात्पर्य प्रयोग के लिए बनी हुई एक ऐसी परियोजना (plan) तथा संरचना (structure) से होता है जिसके आधार पर प्रयोग की समस्या का

1. स्वतंत्र चर (independent variable) वैसे चर को कहा जाता है जिसमें प्रयोगकर्ता द्वारा जोड़-तोड़ किया जाता है तथा जसके प्रभाव से आश्रित चर (dependent variable) प्रभावित होता है।

2. आश्रित चर वैसे चर को कहा जाता है जिसके बारे में प्रयोगकर्ता प्रयोग करके कुछ पूर्ववाचन (prediction) करना चाहता है।

उत्तर ढूँढ़ा जाता है। प्रयोगात्मक डिजाइन के प्रयोग में सम्मिलित किए गए स्वतंत्र र (independent variables), आश्रित चर (dependent variables) तथा नियंत्रित चर (controlice variables) आदि का उल्लेख होता है तथा स्वतंत्र चर में जोड़-तोड़ (manipulation) करने का ढंग तथा नियंत्रित चर के प्रभाव को रोकने का ढंग आदि का उल्लेख करके प्रयोगकर्ता अपने प्रयोग को अधिक वैज्ञानिक बनाता है। शिक्षा मनोविज्ञान के प्रयोगों में कई तरह के प्रयोगात्मक डिजाइन का उपयोग किया जाता है जिनमें निम्नांकित प्रमुख हैं

(क) एकसमूह डिजाइन (One Group Design)

 

इस तरह के डिजाइन में छात्रों के मात्र एक समूह का उपयोग किया जाता है। इस डिजाइन के भीतर निम्नांकित दो डिजाइन आते हैं

(i) एकसमूह पोस्ट-टेस्ट डिजाइन (One group post-test design)–

 

यह एक सरलतम (simplest)) प्राक्-प्रयोगात्मक डिजाइन (pre-experimental design) है जिसमें एक समूह को विवेचन (treatment) देकर उसके प्रभाव का अध्ययन किया जाता है। इसमें कोई तुलना समूह (comparison group) नहीं होता है। जैसे यदि शिक्षक 10 छात्रों का एक ऐसा समूह लेते हैं जिन्हें धूम्रपान करने की आदत है और 1 महीने तक उसे धूम्रपान न करने या धूम्रपान करने से उत्पन्न समस्याओं से अवगत कराते हैं और इसके बाद यदि उसमें 6 छात्र उस 1 महीने के बाद धूमपान करना छोड़ देते हैं, तो प्रयोग का यह सरलतम डिजाइन यहाँ एकसमूह पोस्ट-टेस्ट डिजाइन का उदाहरण होगा।

(ii) एकसमूह प्रीटेस्ट-पोस्ट-टेस्ट डिजाइन (One group pretest-post-test design)-

 

प्रयोग का यह डिजाइन एकसमूह पोस्ट-टेस्ट डिजाइन से थोड़ा श्रेष्ठ (superior) होता है। इस डिजाइन में भी एक ही समूह की भागीदारी (participation) होती है, परंतु उस समूह को जाँच दो बार को जाती है— प्रथम बार विशेष विवेचन (special treatment) के पहले और दूसरी बार उस विवेचन के बाद। इसके बाद प्रयोगकर्ता दूसरी जाँच (second test) तथा पहली जाँच (first test) का तुलनात्मक अध्ययन करके अपनी प्राक्कल्पना (hypothesis) की सत्यता की जाँच करता है। जैसे यदि छात्रों के एक समूह को बी० एड० कक्षा प्रारंभ होने के दिन शिक्षा मनोविज्ञान के ज्ञान की जाँच कर ली जाती है और फिर 9 महीने तक उसे शिक्षा मनोविज्ञान पढ़ाने के बाद शिक्षा मनोविज्ञान के ज्ञान की जाँच कर ली जाती है और इन दोनों जाँचों (tests) में यदि प्राप्तांक (scores) में अंतर आता है तो यह कहा जा सकता है कि अंतर का कारण विशेष विवेचन (special treatment) (अर्थात 9 महीने तक पढ़ाया जाना है। इस तरह के डिजाइन को एकसमूह प्रीटेस्ट-पोस्ट-टेस्ट डिजाइन कहा जाता है।

(ख) द्विसमूह डिजाइन (Two Group Design)

जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इस प्रयोगात्मक डिजाइन में प्रयोज्यों (subjects) का कम-से-कम दो समूह होता है— प्रयोगात्मक समूह (experimental group) तथा नियंत्रित समूह (control group) | प्रयोगात्मक समूह वैसे समूह को कहा जाता है जिसमें स्वतंत्र चर (independent variable) उपस्थित किया जाता है तथा नियंत्रित समूह वैसे समूह को कहा जाता है जिसमें स्वतंत्र चर को अनुपस्थित रखा जाता है। इस तरह के डिजाइन का प्रयोग शिक्षा मनोविज्ञान में सर्वाधिक किया जाता है। इस डिजाइन के भी कई उपप्रकार (subtypes) हैं, परंतु शिक्षा मनोविज्ञान में निम्नांकित दो डिजाइनों का उपयोग सबसे अधिक किया जाता है

(1) प्रीटेस्ट-पोस्ट-टेस्ट डिजाइन (Pretest-post-test design)–

 

इस डिजाइन में दो समूह होते है- एक प्रयोगात्मक समूह (experimental group) तथा दूसरा नियंत्रित समूह (control group) 1 प्रयोगात्मक समूह तथा नियंत्रित समूह दोनों की जाँच (test), जिसे प्रीटेस्ट कहा जाता है, कर लिया जाता है। इसके बाद प्रयोगात्मक समूह को विशेष विवेचन (treatment) दिया जाता है जबकि नियंत्रित समूह को उस प्रकार के विवेचन से वंचित रखा जाता है। इसके बाद पुन दोनों समूहों की जाँच जिसे पोस्ट-टेस्ट कहा जाता है, किया जाता है। यदि दोनों समूह के पोस्ट-टेस्ट प्राप्तांक (post-test scores) में अंतर होता है, तो इसका कारण प्रयोगात्मक समूह को दिया जानेवाला विशेष विवेचन माना जाता है।

उदाहरण– यदि शिक्षक छात्रों के दो समूह को अंकगणितीय परीक्षण (arithmetical test) पर जाँच करके एक समूह को अंकगणित (arithmetic) में 2 महीने का विशेष प्रशिक्षण देते है और दूसरे समूह को उस प्रशिक्षण से वंचित रखते हैं और प्रशिक्षण के बाद दोनों समूहों की अंकगणितीय क्षमता की जाँच अंकगणित परीक्षण द्वारा पुनः करके करते हैं, तो यह एक प्रोटेस्ट पोस्ट-टेस्ट डिजाइन का उदाहरण होगा। यदि शिक्षक पहले समूह यानी प्रयोगात्मक समूह (experimental group) के प्राप्तांक (score) दूसरे समूह अर्थात नियंत्रित समूह के प्राप्तांक से अधिक पाते हैं, तो वे निश्चय होकर यह कह सकते हैं कि इसका कारण प्रयोगात्मक समूह को दिया जानेवाला दो महीने का विशेष प्रशिक्षण ही है।

(ii) समामेलित द्विसमूह डिज़ाइन (Matched two group design)

– इस डिजाइन में प्रयोगकर्ता प्रयोज्यों को पहले उस चर (variable) पर समामेलित (matched) कर लेता है जिसके कारण आश्रित चर (dependent variable) में अंतर हो सकता है। इसके बाद फिर समामेलित युग्मों (matched pairs) में प्रत्येक व्यक्ति का आवंटन (assignment) यादृच्छिक ढंग से (randomly) दो समूह में कर दिया जाता है और फिर उनमें कोई एक प्रयोगात्मक समूह (experimental group) तथा दूसरा नियंत्रित समूह (control group) के रूप में कार्य करता है। प्रयोगात्मक समूह को विशेष विवेचन (special treatment) दिया जाता है तथा नियंत्रित समूह को इस प्रकार के विवेचन से मुक्त रखा जाता है। बाद में इन दोनों समूहों का प्राप्तांक (score) आश्रित चर पर प्राप्त किया जाता है। यदि प्रयोगात्मक समूह के प्राप्तांक के माध्य तथा नियंत्रित समूह के प्राप्तांक के माध्य में अंतर आता है, तो इसका कारण प्रयोगात्मक समूह को दिया जानेवाला विशेष विवेचन समझा जाता है। उदाहरणतः, यदि शिक्षक यह देखना चाहते हैं कि छात्रों द्वारा एक कविता सीखने की प्रक्रिया पर पुरस्कार का क्या प्रभाव पड़ता है। इस प्रयोग में सीखने की प्रक्रिया आश्रित चर (dependent variable) है तथा पुरस्कार स्वतंत्र पर (independent variable) है। शिक्षक यह समझते हैं कि छात्रों की बुद्धि में अंतर होने से सीखने की प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है। अतः वे इन छात्रों को (मान लिया जाए कि कुल 12 छात्र है) बुद्धिलब्धि पर समामेलित (matched) कर लेंगे। इसका मतलब यह हुआ कि प्रत्येक छात्र की बुद्धिलब्धि के बराबर कम-से-कम एक छात्र समूह में और होगा। इस तरह से मिलान natch कर लेने के बाद 12 छात्र के 6 युग्म (pair) बन जाएँगे और फिर प्रत्येक युग्म के प्रत्येक छात्र को यादृच्छिक ढंग से दो समूह में बाँट देगे जिसमें से एक प्रयोगात्मक समूह होगा तथा दूसरा नियंत्रित समूह होगा। प्रयोगात्मक समूह में सीखने के लिए पुरस्कार दिया जाएगा तथा नियंत्रित समूह को सीखने के लिए पुरस्कार नहीं दिया जाएगा। अंत में इस बात का विश्लेषण किया
जाएगा कि प्रयोगात्मक समूह ने कविता सीखने में कितनी त्रुटियों की तथा कितना समय लिया और इसी तरह से नियंत्रित समूह द्वारा लिए गए समय तथा की गई त्रुटियों की गणना की जाएगी। यदि प्रयोगात्मक समूह द्वारा कम समय लिए जाते हैं तथा कम त्रुटि की जाती है, तो इसका कारण पुरस्कार का दिया जाना बताते हुए शिक्षक इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पुरस्कार देने से सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता आती है।

(ग) बहुसमूह डिजाइन (Multigroup Design)

शिक्षा मनोविज्ञान में बहुसमूह डिजाइन का भी उपयोग कर कई प्रयोग किए गए है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इसमें दो से अधिक समूह प्रयोग में भाग लेते हैं। जब कई समूहों की तुलना मात्र एक स्वतंत्र चर (independent variable) के विभिन्न स्तरों पर की जाती है, तो इसमें विशेष सांख्यिकीय परीक्षण (statistical test) अर्थात साधारण ANOVA (Analysis of variance) ज्ञात कर एक निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है। परंतु, जब कई समूहों की तुलना दो या दो से अधिक स्वतंत्र चरो के विभिन्न स्तरों पर की जाती है तो इसमें एक दूसरे तरह की सांख्यिकीय परीक्षण को जटिल ANOVA (Complex ANOVA या Two-way ANOVA) कहा जाता है तथा इस डिजाइन को कारकगुणित डिजाइन (factorial design) कहा जाता है। जैसे, यदि शिक्षक मात्र यह देखना चाहते हैं कि छात्रों को पढ़ाने (teaching) में पढ़ाने की विधि का क्या प्रभाव पड़ता है, तो वे आसानी से छात्रों का दो समामेलित समूह (matched group) या यादृच्छित समूह (randomised group) तैयार कर एक समूह को लेक्चर विधि से तथा दूसरे समूह को परिचर्या विधि (discussion method) से पढ़ाकर तथा परिणाम की व्याख्या साधारण ANOVA से करके एक निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं। परंतु, यदि वे यह भी जानना चाहते हैं कि पढ़ाने की विधि के साथ-ही-साथ पढ़ाने की भाषा (language of teaching) का क्या प्रभाव पड़ता है, तो यहाँ उसे परिणाम की व्याख्या जटिल ANOVA से करनी होगी और प्रयोग का यह डिजाइन कारकगुणित डिजाइन (factorial design) कहलाएगा।

प्रयोगात्मक विधि के कुछ गुण (merits) तथा सीमाएँ (limitations) हैं। इस विधि के प्रमुख गुण निम्नांकित है

(i) प्रयोगात्मक विधि का सबसे प्रमुख गुण यह बताया गया है कि इसके द्वारा बालकों या शिक्षार्थियों ( learners) के व्यवहारों का अध्ययन एक नियंत्रित परिस्थिति (controlled situation) में किया जाता है। इसका मतलब यह हुआ कि प्रयोगात्मक विधि द्वारा हम शिक्षार्थी के व्यवहार का अध्ययन एक ऐसी परिस्थिति में करते हैं जहाँ सिर्फ एक चर (variable), जिसके प्रभाव का अध्ययन करना होता है, को छोड़कर बाकी सभी चरों के प्रभाव को नियंत्रित कर दिया जाता है। इससे प्राप्त परिणाम अधिक विश्वसनीय हो जाते हैं और प्रयोग की आंतरिक वैधता (internal validity) काफी बढ़ जाती है।

(ii) प्रयोगात्मक विधि में पुनरावृत्ति (replicaction) का गुण होता है। यह विधि एक स्पष्ट डिजाइन पर आधारित होती है। फलस्वरूप जब भी चाहे, इस विधि के उस डिजाइन को अपनाकर प्रयोग को दुहराया जा सकता है तथा प्राप्त परिणाम की सत्यता की जाँच आसानी से की जा सकती है। यदि किसी शिक्षक द्वारा प्रयोग कर इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया हो कि बच्चों को पढ़ाने में या कोई पाठ सिखाने में भाषण विधि (lecture method) से अधिक प्रभावकारी प्रदर्शन विधि (demonstration method) होती है, तो इस प्रयोग की डिजाइन के अनुसार पुनः दो बार प्रयोग करके इस निष्कर्ष की सत्यता की जाँच आसानी से कर ली जा सकती है। इस ढंग की सुविधा शिक्षा मनोविज्ञान की अन्य विधियों में उपलब्ध नहीं है।

(iii) प्रयोग विधि का एक अन्य गुण यह बताया गया है कि प्रयोग में चूँकि अंतर्निरीक्षण विधि तथा वस्तुनिष्ठ प्रेक्षण विधि (objective observation method) दोनों का एक सम्मिश्रण पाया जाता है, अतः प्रयोग के परिणाम की वैधता (validity) अन्य विधियों से अधिक होती है। शिक्षा मनोवैज्ञानिक प्रयोग करके जो आँकड़े प्राप्त करते हैं उसका आधार प्रेक्षण (observation) होता है. और साथ-ही-साथ उन वस्तुनिष्ठ आंकड़ों की जाँच प्रयोज्यों से एक अंतर्निरीक्षण (introspection) लेकर भी किया जाता है। उदाहरणार्थ, यदि शिक्षक प्रयोग के वस्तुनिष्ठ आँकड़ों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचनेवाले हैं कि छोटे-छोटे बच्चों के वर्ग में लेक्चर विधि से पढ़ाना या सिखाना उतना श्रेष्ठकर नहीं होता है जितना कि प्रदर्शन विधि (demonstration method), तो वे अंतिम निष्कर्ष पर पहुँचने के पहले बच्चों का अंतर्निरीक्षण रिपोर्ट (introspective report) लेकर भी निष्कर्ष के समर्थन में कुछ तथ्य प्राप्त कर लेना चाहेंगे। इस तरह से प्रयोगात्मक विधि में निष्कर्षों के दोहरा सत्यापन का गुण भी मौजूद रहता है जो शिक्षा मनोविज्ञान की अन्य विधियों में नहीं है।

(iv) प्रयोगात्मक विधि में चूंकि स्वतंत्र चर (independent variable) में जोड़-तोड़ करके उसके आश्रित चर (dependent variable) पर उसके पड़नेवाले प्रभाव का अध्ययन किया जाता है, अतः इस विधि में कारण परिणाम संबंध (cause-effect relationship) की अभिव्यक्ति अधिक स्पष्ट रूप से की जाती है। यदि शिक्षक छात्रों के एक समूह में पुरस्कार देने पर उसके सीखने की गति में तीव्रता पाते हैं तथा छात्रों के दूसरे समूह में पुरस्कार नहीं देने पर सीखने की गति में मंदता पाते हैं, तो वैसी अवस्था में वे स्पष्ट रूप से पुरस्कार (कारण) तथा सीखना (परिणाम) में एक संबंध स्थापित करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पुरस्कार से सीखने की प्रक्रिया प्रभावित होती है।

इन गुणों के बावजूद इस विधि की कुछ सीमाएँ (limitations) हैं जो इस प्रकार हैं

(1) ऐसा कहा जाता है कि प्रयोगात्मक विधि की जो नियंत्रित परिस्थिति (control situation) होती है, वह अवास्तविक (unreal) या कृत्रिम (artificial) परिस्थिति होती है। इस तरह की परिस्थिति का संबंध जीवन की वास्तविकताओं (realities) से नहीं होता। फलस्वरूप ऐसी परिस्थिति में शिक्षा मनोवैज्ञानिकों द्वारा शिक्षार्थियों का अध्ययन किया गया व्यवहार भी कृत्रिम, अस्वाभाविक या अवास्तविक हो जाता है और परिणाम की बाह्य वैधता (external validity) अर्थात उससे प्राप्त तथ्यों को आम बालकों के लिए सही मानना संभव नहीं हो पाता है।

(ii) शिक्षा मनोविज्ञान की कुछ समस्याएँ ऐसी हैं जिनका प्रयोगात्मक विधि द्वारा ठीक ढंग से अध्ययन नहीं किया जा सकता है। जैसे, बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य (mental health), पिछड़ापन, अपराधीकरण आदि से संबंधित समस्याओं का सही ढंग से प्रयोगात्मक विधि द्वारा यदि अध्ययन करने की कोशिश की जाए, तो समान्यत ऐसा करना एक दुष्कर कार्य होगा।

(iii) प्रयोगात्मक विधि में कुछ विशेष प्रकार के दोष स्वाभाविक रूप से सम्मिलित होते हैं। प्रयोगकर्ता पूर्वाग्रह (experiment bias) तथा प्रतिदर्श पूर्वाग्रह (sampling bias) दो ऐसे ही दोष है। प्रयोगकर्ता पूर्वाग्रह में प्रयोगकर्ता की अपनी आकांक्षाए या प्रत्याशाएँ (expectations) प्रयोग के परिणाम तथा प्रेक्षण प्रक्रिया को प्रभावित करती है तथा प्रतिदर्श पूर्वाग्रह से तात्पर्य प्रयोज्यों (subjects) का उपयुक्त प्रतिनिधि (representative) नहीं होने से होता है। अकसर ऐसा देखा गया है कि शिक्षा मनोवैज्ञानिक को जो छात्र या शिक्षार्थी सुविधानुसार मिल जाते हैं, उनको अपने प्रयोज्यो की सूची में शामिल कर लेते हैं। अकसर ऐसे प्रयोज्य उन बालकों या छात्रों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं जिनके बारे में प्रयोग करके पूर्ववाचन (prediction) करना होता है। यह भी देखा गया है कि शिक्षक पहले से अपने शिक्षार्थियों के बारे में कुछ पूर्वाग्रह विकसित कर लेते हैं और उसे मन में रखकर प्रयोग करना प्रारंभ कर देते हैं। उसमें प्रयोग के परिणाम की विश्वसनीयता (rehability) तथा वैधता (validity) बुरी तरह प्रभावित हो जाती है।

इन सीमाओं के बावजूद प्रयोगात्मक विधि शिक्षा मनोविज्ञान की एक प्रमुख विधि है। अधिकतर शिक्षा मनोवैज्ञानिकों का मत है कि शिक्षा मनोविज्ञान में प्रयोगात्मक विधि की भूमिका उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी कि शिक्षा में शिक्षक की रिकन्नर (Skinner, 1976) ने यह बताया है कि जिस तरह शिक्षक के बिना शिक्षा का अस्तित्व संभव नहीं है, उसी प्रकार प्रयोगात्मक विधि के अभाव में शिक्षा मनोविज्ञान का वैज्ञानिक विकास संभव नहीं है।

सह-संबंधात्मक या विभेदी विधि (Correlational or Differential Method)

 

शिक्षा मनोविज्ञान में कुछ समस्याएँ ऐसी होती है जिनमें स्वतंत्र घर में प्रत्यक्ष रूप से जोड़-तोड़ किया जाना संभव नहीं हो पाता है। ऐसी परिस्थिति में शिक्षा मनोवैज्ञानिक ऐसी समस्याओं का अध्ययन प्रयोगात्मक विधि (experimental method) से नहीं कर पाते और वे इसकी जगह सह-संबंधात्मक विधि या विभेदी विधि (correlational method or differential method) का उपयोग करते हैं। इस विधि द्वारा शैक्षिक समस्याओं का अध्ययन करने से छात्रों का एक प्रतिदर्श (sample) का चयन किया जाता है। यह प्रतिदर्श ऐसा होता है जो पूरे जीवसंख्या (population) का प्रतिनिधित्व (represent) करता है। इसके बाद कुछ शैक्षिक चरो (educational variables) पर चयन किए गए छात्रों में समानताओं (similarities) या विषमताओं (differences) का अध्ययन किया जाता है। विशेष सांख्यिकीय परीक्षण (Statistical tests) के आधार पर एक निश्चित निष्कर्ष पर शिक्षा मनोवैज्ञानिक पहुँचते है। इस विधि को विस्तृत अर्थ में सर्वे विधि (survey method) भी कहा जा सकता है। अक्सर इस विधि में शिक्षा मनोवैज्ञानिक विभिन्न तरह के प्रश्नावली (questionnaire), साक्षात्कार (interview) तथा मनोवैज्ञानिक परीक्षणों (psychological tests) का उपयोग कर आँकड़ों (data) का संग्रहण करते हैं।

उदाहरण ( Example) – मान लिया जाए कि कोई शिक्षा मनोवैज्ञानिक यह अध्ययन करना चाहता है कि बालकों के अपराधीकरण (delinquency) पर उनके घरेलू वातावरण का क्या प्रभाव पड़ता है। इस अध्ययन में घरेलू वातावरण (home environment) एक स्वतंत्र चर (independent variable) का उदाहरण है जिसमें जोड़-तोड़ (manipulation) करना शिक्षा मनोवैज्ञानिक के लिए संभव नहीं है। इस समस्या को सह-संबंधात्मक या विभेदी विधि द्वारा अध्ययन करने के लिए दो तरह के बालको का चयन करेंगे- (i) अपराधी बालको (delinquent children) का समूह तथा (ii) सामान्य बालकों (normal children) का समूह बालकों के इन दोनों तरह के समूहों को तैयार करने में प्रश्नावली, मनोवैज्ञानिक परीक्षण साक्षात्कार आदि का सहारा लिया जाएगा। इसके बाद यह निश्चित किया जाएगा कि अपराधी बालकों कितने बालक लाभान्वित परिवार (advantaged family) से आते हैं अलाभान्वित (disadvantaged family) से आते है। यह निश्चय किया जाएगा सामान्य बालकों में कितने बालक लाभान्वित परिवार आते हैं तथा परिवार इतना ब्योरा तैयार कर लेने के बाद उपयुक्त सांख्यिकीय आँकड़ों विश्लेषण शिक्षा मनोवैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँच है कि अलाभान्वित परिवार बालकों लाभान्वित परिवार के बालकों की अपेक्षा अपराधीकरण प्रवृत्ति अधिक होती

विभेदी विधि के कुछ (merits) एवं सीमाएँ (limitations) भी जो निम्नांकित है

 

(i) विभेदी विधि द्वारा शिक्षा मनोवैज्ञानिक उन समस्याओं का आसानी से अध्ययन कर लेते हैं। जिनके स्वतंत्र चरों (independent variables) में जोड़-तोड़ (manipulation) करके अध्ययन करना संभव नहीं है।

(ii) विभेदी विधि द्वारा शिक्षा मनोवैज्ञानिक कम समय में एक बड़े समूह का अध्ययन आसानी से कर लेते हैं, क्योंकि इस विधि में प्रश्नावली का प्रयोग होता है जिसके माध्यम से एकसाथ बालकों के एक बड़े समूह के विचारों को जाना जा सकता है।

विभेदी विधि की कुछ सीमाएँ (limitations) भी हैं जो निम्नांकित हैं—

(i) इस विभेदी विधि में चूँकि स्वतंत्र चर में जोड़-तोड़ (manipulation) नहीं किया जाता है, अतः इससे प्राप्त तथ्यों के आधार पर यह विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता कि आश्रित चर में होनेवाले परिवर्तन का कारण क्या है। दूसरे शब्दों में, इस विधि द्वारा प्राप्त आँकड़ों के आधार पर स्वतंत्र चर तथा आश्रित चर में कारण- परिणाम संबंध (cause-effect relationship) स्थापित करना संभव नहीं है।

(ii) विभेदी विधि के अध्ययन की परिस्थिति अनियंत्रित (uncontrolled) होती है। फलस्वरूप, इससे प्राप्त परिणामों की विश्वसनीयता (reliability) अधिक नहीं होती।

ऐसी कुछ सीमाओं के बावजूद विभेदी (differential method) का प्रयोग शिक्षा मनोविज्ञान बड़े पैमाने पर किया जाता है, किया क्योंकि इसके द्वारा उन चरो  का अध्ययन आसानी से कर  लिया जाता है जिनका अध्ययन प्रयोगात्मक विधि द्वारा  दुष्कर है।

मनोदैहिक विधि (Psychophysical Method)

मनोदैहिकी (Psychophysics) प्रयोगात्मक मनोविज्ञान की एक ऐसी शाखा है जिसमें उद्दीपन (stimulus) के स्तर (levels) तथा उससे व्यक्ति में उत्पन्न अनुभूतियों (experiences) के बीच के मात्रात्मक संबंधों (quantitative relationships) का अध्ययन किया जाता है। मात्रात्मक संबंधों का अध्ययन करने के लिए कई मनोदैहिक विधियों (psychophysical methods) का प्रतिपादन किया गया है, जिनमें अग्रांकित तीन अधिक लोकप्रिय हैं-

शिक्षा मनोविज्ञान में भी इन विधियों का उपयोग बालकों के ध्यान (attention), प्रत्यक्षणात्मक समस्याओं (perceptual problems) आदि का अध्ययन करने के लिए किया जाता है। इन तीन विधियों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है

(क) औसत त्रुटि विधि (Method of Average Error)

 

इस विधि में व्यक्ति को दो उद्दीपन (stimuli) एकसाथ दिए जाते हैं। इनमें एक उद्दीपन को मानक उद्दीपन (standard stimulus) तथा दूसरे को परिवर्त्य उद्दीपन (variable stimulus) कहा जाता है। मानक उद्दीपन उस उद्दीपन को कहा जाता है जिसकी मात्रा पहले से निश्चित होती है और इसमें किसी प्रकार का जोड़-घटाव संभव नहीं होता है। परिवर्त्य उद्दीपन उस उद्दीपन को कहा जाता है जिसकी मात्रा में जोड़-घटाव आसानी से किया जा सकता है। इस विधि का प्रयोग बालकों की प्रत्यक्षणात्मक समस्याओं (perceptual problems), विशेषकर भ्रम (illusion) आदि की मात्रा की माप में अधिक किया जाता है। इस विधि को समायोजन विधि (method of adjustment) की भी संज्ञा दी जाती है।

(ख) सीमा विधि (Method of Limits )

 

इस विधि में उद्दीपन (stimulus) के मान (value) में अल्पतम परिवर्तन (minimal changes) करते हुए उसे क्रमबद्ध रूप से (systematically) घटाया या बढ़ाया जाता है। जब उद्दीपन के मान को घटाना रहता है, तब उस उद्दीपन को एक ऐसे मान से शुरू किया जाता है जिसका प्रत्यक्षण (perception) स्पष्ट रूप से बालक को हो सके। इसके बाद उद्दीपन के मान में अल्पतम परिवर्तन करके तब तक घटाया जाता है जब तक कि बालक अपना उत्तर न बदल दे। इसे अवरोही श्रृंखला (descending series) कहा जाता है। अवरोही शृंखला के बाद आरोही शृंखला (ascending series) प्रारंभ की जाती है जहाँ बालक को उद्दीपन के मान में अल्पतम परिवर्तन करते हुए तब तक बढ़ाया जाता है जब तक कि बालक अपना उत्तर न बदल दे अर्थात जब तक बालक को उसका स्पष्ट प्रत्यक्षण न हो जाता है।

सीमा विधि से किसी समस्या का अध्ययन करने में सामान्यत दो तरह की त्रुटियाँ (errors) होती हैं- प्रत्याशा त्रुटि (error of expectation) तथा अभ्यसन त्रुटि (error of habituation)। जब आरोही शृंखला (ascending series) का माध्य (mean) ज्यादा होता है, तब समझा जाता है कि बालक द्वारा अभ्यसन त्रुटि हो रही है, परंतु जब अवरोही (descending series) का माध्य ज्यादा होता है तो समझा जाता है कि बालक में प्रत्याशा त्रुटि हो रही है।

(ग) सतत उद्दीपन विधि (Method of Constant Stimuli)

इस विधि में उद्दीपन (stimulus) की भिन्न-भिन्न मात्राओ (values) को आरोही श्रृंखला (ascending series) तथा अवरोही श्रृंखला (descending series) में प्रस्तुत न करके उसे अनियमित रूप से (irregularly) प्रस्तुत किया जाता है। इनमें उद्दीपन की कुछ मात्रा तो ऐसी होती है जो सीमांत (threshold) से ऊपर होती है और उनका स्पष्ट प्रत्यक्षण बालक द्वारा किया जाता है तथा कुछ ऐसी होती है जो सीमांत से नीचे होती है और उनका सही प्रत्यक्षण कठिन होता है। इस विधि द्वारा बालकों के ध्यान (attention) संबंधी समस्याओं का अध्ययन सफलतापूर्वक किया गया है।

•मनोदैहिक विधियों का प्रमुख लाभ यह बताया गया है कि इसके द्वारा बालकों की जिन समस्याओं का अध्ययन किया जाता है, वह अत्यधिक वस्तुनिष्ठ (objective) एवं वैज्ञानिक होती हैं। फिर भी इन विधियों की कुछ परिसीमाएँ (limitations) है। इसकी एक प्रमुख परिसीमा यह है कि इस विधि का कार्यक्षेत्र (scope), जैसा कि लुण्डबर्ग (Lundberg, 1975) ने कहा है, काफी सीमित है। फलस्वरूप, इस विधि का प्रयोग बालकों की कुछ खास-खास समस्याओं के अध्ययन में ही किया जा सकता है। जैसे इन विधियों द्वारा बालकों के सीखना (learning), स्मरण (remembering), बौद्धिक क्षमता आदि से संबंधित समस्याओं का अध्ययन किया जाना संभव नहीं है।

नैदानिक विधि या केस इतिहास विधि (Clinical Method or Case-history Method)

 

नैदानिक विधि एक ऐसी विधि है जिसका प्रयोग शिक्षा मनोवैज्ञानिक (educational psychologists) कुसमायोजित बालकों (maladjusted children) तथा विचलित बच्चों (deviant children) की समस्याओं के अध्ययन में करते हैं। इस विधि द्वारा अपराधी बालकों की समस्याओं का भी विशिष्ट अध्ययन किया जाता है। कुछ शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने इस विधि का प्रयोग शिक्षार्थियों की संवेगात्मक समस्याओं (emotional problems) के अध्ययन में भी सफलतापूर्वक किया है। इस विधि में बालकों की समस्याओं का अध्ययन करने के लिए एक केस विवरण या इतिहास (case-history) तैयार किया जाता है। इसलिए इस विधि को केस विवरण विधि (case-history method) भी कहा जाता है। इसमें अपराधी बालक या विचलित (deviant) बालक द्वारा पिछले कई वर्षों में की गई अंत क्रियाओं (interactions) का एक विशेष रिकार्ड तैयार किया जाता है। इन अंत क्रियाओं का विश्लेषण करके शिक्षा मनोवैज्ञानिक ऐसे बालकों की समस्याओं के संभावित कारणों का पता लगाते हैं। ऐसे तो इन अंत क्रियाओं में कौन-कौन अंतः क्रियाओं को सम्मिलित किया जाएगा. इसके बारे में कोई सामान्य नियम नहीं है, परंतु शिक्षा मनोवैज्ञानिकों के बीच इस बात की करीब-करीब सहमति है कि किसी समस्या बालक (problem child) या बालकों का केस विवरण (case-history) तैयार करते समय मूल रूप से निम्नांकित तथ्यों पर विशेष ध्यान देना चाहिए

(i) प्रारंभिक सूचनाएँ (Preliminary informations) –

इसके अंतर्गत (problem child) का नाम, उम्र, यौन (sex), माता-पिता की उम्र, शिक्षा, पेशा, सामाजिक स्तर (social status), परिवार में सदस्यों की संख्या आदि जैसे तथ्यों को सम्मिलित किया जाता है।

(ii) गत इतिहास (Past history ) –

इसके अंतर्गत गर्भधारण से वर्तमान समय तक का इतिहास तैयार किया जाता है। जब बालक माँ के गर्भ में था, तो उस समय माँ की स्थिति कैसी थी माँ में उस समय कोई भयंकर शारीरिक या मानसिक बीमारी हुई थी या नहीं, जन्म लेते समय की अवस्था कैसी समस्या चालक थी। क्या जन्म सामान्य ढंग से हुआ था या किसी प्रकार की कोई दिक्कत (complication) आदि उत्पन्न हुई थी. जन्म के बाद किसी प्रकार की शारीरिक आघात आदि की घटना बालक का जन्मक्रम (birth order) बचपनावस्था में किसी भयंकर शारीरिक बीमारी का प्रकोप आदि से संबंधित तथ्यों को इकट्ठा किया जाता है।

(iii) वर्तमान अवस्था (Present condition)

– बालक की वर्तमान अवस्था के बारे में भी एक लेखा-जोखा तैयार कर लिया जाता है। जैसे बालक का बुद्धि स्तर (intelligence level), उसकी रुचि (interest). शौक (hobby), अभिक्षमता (aptitude). सावैगिक स्तर (level of (emotionality), स्कूल उपलब्धि (school achievement) से संबंधित तथ्यों को इकट्ठा कर लिया जाता है।

उपर्युक्त ढंग से शिक्षा मनोविज्ञान किसी अपराधी बालक या समस्या बालक (problem child) के बारे में तथ्य इकट्ठा कर लेते हैं और उसका विश्लेषण करके ऐसे बालकों की समस्या या कुसमायोजन (maladjustment) के कारणों का पता लगाने की कोशिश करते हैं। इस विवरण से यह स्पष्ट है कि नैदानिक विधि (clinical method) का आधार केस अध्ययन (case study) होता है जिसमें बालकों का एक केस विवरण (case-history) तैयार करके उसकी समस्या, जैसे कुसमायोजन (maladjustment), अपराच (delinquency) आदि के कारणों का पता लगाया जाता है।

नैदानिक विधि के कुछ गुण तथा दोष बताए गए हैं। इसके प्रमुख गुण (merits) निम्नांकित है

(i) नैदानिक विधि में मनोवैज्ञानिक चूंकि प्रत्येक अध्ययन किए जानेवाले बालक का एक अलग विस्तृत इतिहास तैयार करके उसके कारणों का पता लगाना चाहते हैं, इसलिए इस विधि द्वारा बालकों का गहन अध्ययन (intensive study) संभव है।

(ii) नैदानिक विधि द्वारा बालकों के मानसिक तथा शारीरिक विकासक्रम को अच्छी तरह समझा जाता है। शिक्षकों को इस बात की भरपूर जानकारी हो जाती है कि बालक किन-किन वैयक्तिक अवस्थाओं से गुजरे हैं तथा उनका प्रभाव उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास पर क्या पड़ा है।

(iii) नैदानिक विधि द्वारा बालकों की समस्याओं तथा उनके संभावित कारणों पर सीधा प्रकाश डालने का सुनहरा अवसर शिक्षा मनोवैज्ञानिक को प्राप्त हो जाता है, जो अन्य विधि में दुर्लभ है।

इन गुणों के बावजूद इस विधि के कुछ अवगुण या दोष (demerits) हैं जो निम्नांकित है—

(i) नैदानिक विधि में शिक्षा मनोवैज्ञानिक बालकों की समस्याओं का अध्ययन बालकों के अतीत का विश्लेषण करके करते हैं। यह विवरण मूलत बच्चों के माता-पिता तथा अन्य सदस्यों द्वारा दी गई सूचनाओं पर आधारित होता है। अक्सर देखा गया है कि माता-पिता या परिवार के अन्य सदस्य सच्ची घटनाओं एवं तथ्यों को विशेषकर वैसी घटनाओं एवं तथ्यों को, जिनका संबंध नैतिकता (morality) से होता है, छिपा लेते हैं। फलस्वरूप, उनके द्वारा दी गई सूचनाएँ दोषपूर्ण (defective) हो जाती है और उनके आधार पर जो अध्ययन किया जाता है वह भी काफी निर्भरयोग्य (dependable) नहीं रह जाता है।

(ii) बालकों का पूर्ण विवरण तैयार करने में माता-पिता या परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा दी गई सूचनाओं की सत्यता की जाँच करने का कोई तरीका नैदानिक विधि में प्राप्त नहीं है। फलस्वरूप जो भी सूचना प्राप्त होती है, उसमें आत्मनिष्ठता (subjectivity) इतनी अधिक होती है कि उसकी जाँच संभव नहीं है। अतः इस कारण भी इस विधि की वैधता (validity) पर आँच आती है।

(iii) नैदानिक विधि द्वारा बालकों की समस्या का अध्ययन करने के लिए यह आवश्यक है कि मनोवैज्ञानिक काफी प्रशिक्षित (trained) हो। अकसर देखा गया है कि प्रशिक्षित होने के बावजूद मनोवैज्ञानिक बालकों की उन समस्याओं का अध्ययन जिनका स्वरूप अधिक जटिल एवं संवेगात्मक होता है, मात्र उनके गत इतिहास का विश्लेषण करके ठीक ढंग से नहीं कर पाते हैं। ऐसी अवस्था में उन्हें अन्य दूसरी विधि का सहारा लेना ही पड़ता है।

(iv) नैदानिक विधि को अध्ययन विधि बिलकुल ही अंतदर्शी (intuitive) तथा आत्मनिष्ठ (subjective) है। बालक के एक ही केस विवरण का विश्लेषण यदि कई विशेषज्ञों द्वारा किया जाता है, तो सभी विशेषज्ञ एकसमान निष्कर्ष पर न पहुँचकर अलग-अलग निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। इससे पता चलता है कि इस विधि में आत्मनिष्ठता अधिक है और मनोवैज्ञानिक के अंतर्दर्शन (intuition) का अधिक प्रभाव पड़ता है। इस आत्मनिष्ठता का प्रभाव यह होता है कि नैदानिक विधि की विश्वसनीयता (realiability) तथा निर्भरता समाप्त हो जाती है।

इन परिसीमाओं के बावजूद नैदानिक विधि का उपयोग समस्या बालकों (problem children) के व्यवहारों के अध्ययन में काफी किया जाता है।

प्रश्नावली विधि (Questionnaire Method)

 

प्रश्नावली विधि शिक्षा मनोविज्ञान की एक प्रमुख विधि है। इस विधि में प्रश्नों की एक लंबी सूची तैयार की जाती है, जिसे प्रश्नावली कहा जाता है। बालकों या शिक्षार्थियों (leamers) को प्रश्नावली दे दिए जाते हैं जिनमें प्रश्न तथा उनके उत्तर (जो प्रायः ‘हाँ नहीं’ या ‘सही-गलत’ में होते हैं) भी छपे होते हैं। बालक उन प्रश्नों को एक-एक करके पढ़ते जाते हैं और अपने लिए जिस उत्तरश्रेणी को सही समझते हैं, उसपर चिह्न लगाते जाते है। बाद में इन उत्तरों का विश्लेषण करके बालकों को आदतों,

अभिरुचियों, मनोवृत्तियो आदि का पता लगाया जाता है। रिली तथा लेविस (Reilly & Lewis, 1983) के अनुसार, शिक्षा मनोविज्ञान में जितने भी प्रश्नावली का प्रयोग किया गया है, उसे निम्नांकित दो भागों में बाँटा जा सकता है- (क) खुला प्रारूप प्रश्नावली (open-form questionnaire) तथा (ख) बंद-प्रारूप प्रश्नावली (closed-form questionnaire)।

खुला प्रारूप प्रश्नावली वैसी प्रश्नावली को कहा जाता है जिसके प्रश्नों के उत्तर कोई निश्चित दिए गए शब्दों जैसे ‘हीं नहीं’ में नहीं दिया जाता है बल्कि उसका उत्तर सामान्यत एक-दो पंक्ति लिखकर बालकों को देना होता है। खुला प्रारूप प्रश्नावली के प्रश्नों का एक-दो नमूना इस प्रकार है—

(i) अपने वर्ग में अनुशासन के स्तर को बनाए रखने के लिए आप क्या सुझाव देना चाहेंगे?

(ii) छात्र-अनुशासनहीनता के क्या-क्या कारण है?

बंद-प्रारूप प्रश्नावली वैसी प्रश्नावली को कहा जाता है जिसमें प्रश्नों के उत्तर दिए गए उत्तरो जैसे ‘हाँ नहीं’ या ‘सही-गलत’ में से किसी एक में चुनकर बालक को देना होता है। बंद-प्रारूप प्रश्नावली (closed-form questionnaire) का एक दो नमूना इस प्रकार हैं

(i) क्या आपको वर्ग में खड़ा होकर बोलने में हिचकिचाहट होती है ?                                                     हाँ / नहीं

(ii) क्या आपको गणित के शिक्षक से काफी डर लगता है?                                                                   हाँ/नहीं

(iii) क्या आप प्रतिदिन गृहकार्य (home task) करके वर्ग में आते हैं?                                                 हाँ / नहीं

प्रश्नावली का प्रकार चाहे खुला प्रारूप (open-form) का हो या बंद-प्रारूप (closed-form) का हो, उसका उद्देश्य हमेशा बालकों के व्यक्तित्व के उन पहलुओं के बारे में सही एवं वैध सूचनाएँ प्राप्त करना होता है, जिसके लिए उसे बनाया गया है। प्राय शिक्षक द्वारा प्रश्नावली विधि का प्रयोग शिक्षार्थियों की अभिरुचि, योग्यता, अभिक्षमता (aptitude), मनोवृत्ति (attitude), उनके व्यक्तित्व के कुछ खास-खास शीलगुण जैसे आत्म-विश्वास (self-confidence), प्रभुत्व (dominance), अंतर्मुखता (introversion), बहिर्मुखता (extroversion) आदि को मापने में सफलतापूर्वक किया गया है। प्रश्नावली विधि की सफलता इस बात पर निर्भर है कि उसमें पूछे गए प्रश्नों की भाषा में अस्पष्टता (vagueness) न हो तथा साथ-ही-साथ उसका स्वरूप ऐसा हो कि बालक उसका उत्तर बिना किसी हिचकिचाहट के दे सके।

प्रश्नावली विधि के कुछ गुण (merits) तथा परिसीमाएँ (limitations) हैं। इस विधि के प्रमुख गुण (merits) निम्नांकित है

(i) प्रश्नावली विधि में सरलता (simplicity) का गुण पाया जाता है। इसका प्रयोग करने के लिए शिक्षक या शिक्षा मनोवैज्ञानिक को कोई विशेष प्रशिक्षण (training) की आवश्यकता नहीं होती है।

(ii) प्रश्नावली विधि द्वारा कम समय में ही कई बालकों या शिक्षार्थियों के शीलगुणों (traits), अभिक्षमता, मनोवृत्ति (attitude) तथा अभिरुचि का मापन कर लिया जाता है क्योंकि प्रश्नावली का प्रयोग एकसाथ एक समूह में आसानी से किया जा सकता है।

(iii) प्रश्नावली विधि उन शिक्षार्थियों एवं बालकों के लिए अधिक लाभप्रद साबित हुई है जो • संकोचशील एवं अंतर्मुखी (introvert) होते हैं। रिली तथा लेविस (Reilly & Lewis, 1983) ने बताया है कि इस तरह के बच्चे जितने अच्छे ढंग से प्रश्नावली के प्रश्नों के उत्तर देकर अपने-आपकी अभिव्यक्ति (expression) कर पाते हैं, और एक स्वाभाविक तथा सहज उत्तर दे पाते हैं उतना किसी अन्य विधि से नहीं। अत प्रश्नावली विधि का एक विशेष गुण यह भी बताया गया है कि यह बालकों को, विशेषकर संकोचशील एवं अंतर्मुखी बालकों को एक सहज एवं स्वाभाविक उत्तर देने के लिए एक विशेष वातावरण तैयार करता है।

(iv) प्रश्नावली विधि का एक गुण यह भी बताया गया है कि इसके द्वारा कुछ खास तरह के विकलांग बालकों, जैसे पढ़े-लिखे गूँगे एवं बहरे बालकों के शीलगुणों का भी अध्ययन किया जा सकता है। ऐसे बालकों को अन्य विधि से जैसे साक्षात्कार विधि (interview method) द्वारा अध्ययन करना कठिन है।

इन गुणों के बावजूद प्रश्नावली विधि के कुछ अवगुण भी जो निम्नांकित है

(1) प्रश्नावली विधि का सबसे प्रमुख अवगुण (demerit) यह बताया गया है कि इसमें शिक्षार्थी या बालक आसानी से सही अनुक्रिया को छिपाकर उसकी जगह मनगढ़ंत उत्तर (faked answer) देने समर्थ हो जाते हैं। ऐसा होने से प्रश्नावली विधि की वैधता (validity) काफी कम हो जाती है, क्योंकि इससे शिक्षार्थियों के बारे सही सूचनाएँ नहीं मिल पाती हैं।

(ii) प्रश्नावली विधि में आत्मनिष्ठता (subjectivity) का गुण पाया जाता है। दूसरे शब्दों में, इस विधि से प्राप्त उत्तरों का मूल्यांकन एवं विश्लेषण करते समय, विशेषकर जब खुला प्रारूप प्रश्नावली (open-form questionnaire) का उपयोग किया गया हो, विश्लेषकों (analysts) एवं अध्ययनकर्ताओं की अपनी व्यक्तिगत धारणा एवं पूर्वाग्रह (prejudice) का अधिक प्रभाव पड़ता है जिसका परिणाम यह होता कि प्रश्नावली विधि की विश्वसनीयता (reliability) काफी कम हो जाती है।

(iii) कभी-कभी यह देखा गया है कि प्रश्नावली विधि में कुछ ऐसे प्रश्नों को सम्मिलित कर लिया जाता जिनका अर्थ एक बालक से दूसरे बालक अपने-अपने दृष्टिकोणों से अलग-अलग ढंग से लगाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि प्रश्नावली की वैधता (validity) काफी कम हो जाती और उससे प्राप्त सूचनाओं पर अधिक भरोसा नहीं किया जा सकता।

(iv) प्रश्नावली विधि का एक दोष यह भी बताया गया कि इसके बालक चाहकर भी कभी-कभी प्रश्नों का सही-सही उत्तर नहीं दे पाते, क्योंकि वे प्रश्नों से संबंधित अपनी गत अनुभूतियों (past experiences) का सही-सही प्रत्याह्वान (recall) अपनी अपरिपक्व मानसिक अवस्थाओं (immatured mental conditions) के कारण नहीं कर पाते हैं। ऐसी अवस्था में प्रश्नावली विधि से जो सूचनाएँ प्राप्त होती वे तो अधिक विश्वसनीय (reliable) होती हैं और न ही अधिक वैध ही होती हैं।

इन अवगुणों के बावजूद प्रश्नावली विधि का प्रयोग शिक्षा मनोवैज्ञानिकों द्वारा बालकों की अभिरुचि, मनोवृत्ति, शीलगुणों (traits) आदि के अध्ययन में काफी किया जाता है।

साक्षात्कार विधि (Interview Method)

 

साक्षात्कार विधि का भी प्रयोग शिक्षा मनोविज्ञान में किया जाता है। इस विधि द्वारा शिक्षा मनोवैज्ञानिक शिक्षार्थियों की अभिरुचियों (interests), योग्यताओं मनोवृत्तियों (attitudes) से संबद्ध समस्याओं का अध्ययन करते हैं। साक्षात्कार विधि में प्रशिक्षित एवं कुशल शिक्षा मनीवैज्ञानिक शिक्षार्थियों या बालकों का एक-एक करके या एक छोटा समूह बनाकर एक आमने-सामने की परिस्थिति (face-to-face situation) में कुछ प्रश्न पूछते हैं और दिए गए उत्तरों के विश्लेषण के आधार पर शिक्षार्थी की अभिरुचियों मनोवृत्तियों आदि के बारे में एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। ऐसे साक्षात्कार का प्रयोग शिक्षा मनोवैज्ञानिक बालकों के समायोजन (adjustment) संबंधी समस्याओं का अध्ययन करने में तथा साथ-ही-साथ उनका शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन (educational & vocational guidance) करने में भी काफी करते हैं।

शिक्षा मनोविज्ञान में दो प्रकार के साक्षात्कार (interview) का उपयोग किया जाता है— संरचित साक्षात्कार (structured interview) तथा असंरचित साक्षात्कार (unstructured interview)। संरचित साक्षात्कार में शिक्षा मनोवैज्ञानिक पहले से यह निश्चित कर लेते हैं कि शिक्षार्थियों से वे किन-किन प्रश्नों को पूछेंगे और उसके पूछने का क्रम क्या होगा। सामान्यतः जो क्रम निश्चित किए जाते हैं इसी क्रम में सभी बालकों या शिक्षार्थियों से प्रश्नों को पूछा जाता है। इसका विशेष लाभ यह बताया गया है कि इस तरह के साक्षात्कार में वस्तुनिष्ठता (objectivity) अधिक होती है तथा साथ-ही-साथ उसमें क्रमबद्धता (systematisation) अधिक होता है। असंरचित साक्षात्कार वैसे साक्षात्कार को कहा जाता है जिसमें साक्षात्कारकर्ता प्रश्नों के स्वरूप (nature) अपने मन से निर्धारित करता है तथा वह कोई एक निश्चित क्रम में प्रश्नों को सभी बालकों से नहीं पूछता है। कुछ बालकों से एक तरह के प्रश्न पूछे जाते है तो कुछ अन्य बालकों से दूसरे तरह के दिए गए उत्तरों का विश्लेषण कर साक्षात्कारकर्ता बालकों की अभिरुचि, मनोवृत्ति या अन्य शीलगुणों के बारे मे एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचता है।

शैक्षिक दृष्टिकोण (educational pointview) से साक्षात्कार के कई गुण एवं दोष हैं। शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने इसके प्रमुख गुणों का उल्लेख इस प्रकार किया है

(1) साक्षात्कार विधि का सबसे प्रमुख गुण यह बताया गया है कि इस विधि द्वारा बालकों के व्यवहारों एवं शैक्षिक समस्याओं का अध्ययन प्रत्यक्ष रूप (directly) से किया जाता है। शिक्षा मनोवैज्ञानिक बालकों से सीधे प्रश्न पूछते है और बालक द्वारा दिए गए उत्तरों का विश्लेषण करके एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचते हैं।

(ii) साक्षात्कार विधि एक ऐसी विधि है जिसमें बालकों की भाव-भंगिमा, आनन-अभिव्यक्ति ( facial expression). बोलने की शैली आदि के भी निरीक्षण का मौका साक्षात्कारकर्ता को मिलता है। इसका परिणाम यह होता है कि शिक्षा मनोवैज्ञानिक द्वारा साक्षात्कार के आधार पर बालकों के व्यवहारों एवं शीलगुणों के बारे में जिस निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है, वह अधिक ठोस (concrete) एवं वैज्ञानिक होता है और उसके द्वारा बालकों के मानसिक एवं शारीरिक दोनों पहलुओं की परख कर ली जाती है।

| (iIi) स्वार्ज ( Schwartz, 1977) का विचार है कि साक्षात्कार द्वारा, विशेषकर संरचित साक्षात्कार (structured interview) द्वारा बालकों तथा शैक्षिक समस्याओं के बारे में जो सूचनाएँ प्राप्त होती हैं, उनमें जितनी अधिक विश्वसनीयता (reliability) होती है, उतनी विश्वसनीयता अन्य विधियों, जैसे प्रश्नावली विधि से प्राप्त सूचनाओं में नहीं होती।

इन गुणों के बावजूद साक्षात्कार विधि की कुछ परिसीमाएँ भी हैं, जो निम्नांकित हैं

(i) साक्षात्कार विधि में समय अधिक लगता है तथा साथ-ही-साथ यह एक खर्चीली प्रविधि भी बताई गई है। इसमें समय अधिक लगने का कारण यह है कि साक्षात्कार प्राय एक-एक बालक या शिक्षार्थी को अलग-अलग बुलाकर किया जाता है। अगर साक्षात्कारकर्ता को किसी विद्यालय के 500 बालकों का भी साक्षात्कार लेना है, तो जाहिर है कि इसमें समय तथा श्रम दोनों ही अधिक लगेंगे। समय और श्रम बचाने के खयाल से कभी-कभी शिक्षक या शिक्षा मनोवैज्ञानिक या साक्षात्कारकर्ता एकसाथ कई छात्रों को बैठाकर साक्षात्कार लेना प्रारंभ कर देते हैं, परंतु इससे कोई सार्थक मतलब सिद्ध नहीं हो पाता है और कोई वैज्ञानिक निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा जाता है। इसमें धन भी अधिक खर्च होता है, क्योंकि साक्षात्कार के लिए साक्षात्कारकर्ता प्रति बालक एक निश्चित राशि या रकम लेता है।

(ii) अक्सर देखा गया है कि साक्षात्कारकर्ता हेलो या परिवेश प्रभाव (Halo effect) द्वारा ग्रसित रहते है जिससे वे बालकों के शीलगुणों के बारे में एक निश्चित एवं वैज्ञानिक निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाते हैं। हेलो प्रभाव से तात्पर्य एक प्रकार की ऐसी पूर्वधारणा (prejudice) या पूर्वाग्रह (bias) से होता है जिसके आधार पर साक्षात्कारकर्ता द्वारा बालक के व्यवहारों एवं शीलगुणों के बारे में लिया गया निर्णय प्रभावित होता है। उदाहरणार्थ, जब शिक्षक किसी अमुक छात्र के बारे में एक नकारात्मक पूर्वधारणा (negative prejudice) बना लेते हैं, तो वे उस छात्र को अक्सर सभी तरह के शीलगुणों एवं व्यवहारों पर नकारात्मक ढंग से (negatively) ही परख करते हैं, हालाँकि वास्तविकता (reality) इससे कुछ हटकर हो सकती है। साक्षात्कार विधि में इन त्रुटियों को रोकने का कोई प्रावधान नहीं है।

(iii) साक्षात्कार विधि द्वारा बालकों के शैक्षिक व्यवहारों का अध्ययन करते समय यह देखा जाता है कि साक्षात्कार के परिवेश में अपने को पाकर, बालक अकसर घबड़ा (nervous) जाते हैं। वे काफी डरे-डरे-से दीखते हैं। कभी-कभी तो बालक इतना अधिक घबड़ा जाते हैं कि वे सबकुछ जानते हुए भी प्रश्नों का सही सही उत्तर नहीं दे पाते। ऐसी परिस्थिति में शिक्षक या साक्षात्कारकर्ता के लिए किसी निश्चित एवं वैज्ञानिक निष्कर्ष पर पहुँचना संभव नहीं हो पाता है।

(iv) साक्षात्कार विधि द्वारा बालकों के कुछ खास शीलगुणों या व्यवहारों का अध्ययन नहीं किया जा सकता। स्वार्ज (Schwartz. 1977) के अनुसार, साक्षात्कार विधि द्वारा बालकों के कुछ विशेष शीलगुण, जैसे ईमानदारी (honesty) तथा अन्य चरित्र संबंधी शीलगुण को साक्षात्कार में मात्र कुछ मिनट बातचीत करके सही-सही नहीं आंका जा सकता।

(v) साक्षात्कार विधि का एक सामान्य दोष (common defect) यह बताया गया है कि मात्र चंद मिनटों तक बालकों से प्रश्न पूछकर तथा उसके द्वारा दिए गए उत्तरों एवं दिखलाई गई भाव-भंगिमा को देखकर एक ठोस निष्कर्ष पर पहुँचना, जल्दबाजी में लिया गया एक कदम कहा गया है। बालकों के व्यक्तित्व का समस्त मूल्यांकन (overall evaluation) साक्षात्कार के चंद मिनटों पर आधारित करना अधिक वैज्ञानिक कदम नहीं माना जा सकता है।

ऊपर के वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि साक्षात्कार विधि की कई खामियाँ हैं। इन खामियों के बावजूद साक्षात्कार विधि का प्रयोग शिक्षा मनोविज्ञान में अधिक किया जाता है।

 रेटिंग विधि (Rating Method)

 

शिक्षा मनोविज्ञान में रेटिंग विधि (Rating method) का भी अधिक प्रयोग किया जाता है। यह विधि रेटिंग मापनी (rating scale) के नाम से अधिक लोकप्रिय (popular) है। इस विधि में शिक्षा मनोवैज्ञानिक बालक या बालकों के व्यवहार की व्याख्या एक दिए हुए वर्ग मापनी (category scale) पर किसी स्वाभाविक परिस्थिति (natural situation) में जैसे वर्ग (classroom) में या खेल के मैदान में करते हैं। जैसे यदि कोई शिक्षक वर्ग में किसी बालक में शिष्टाचार (discipline) संबंधी आदतों का प्रेक्षण करके 5-बिंदु (5-point) सापनी (scale), जैसे अत्यधिक सहमत (strongly agree). सहमत (agree), नटस्थ (neutral), असहमत (disagree) तथा अत्यधिक असहमत (strongly disagree) पर रेटिंग करता है अर्थात उसके शिष्टाचार संबंधी आदतों का एक तरह से श्रेणीकरण करता है, और एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचता है, तो यह रेटिंग विधि (rating method) द्वारा किया गया अध्ययन का एक नमूना होगा। स्पष्ट है कि रेटिंग विधि का आधार शिक्षक द्वारा किया गया प्रेक्षण (observation) ही होता है।

इन तीनों तरह के मापनी तथा उनकी शैक्षिक उपयोगिताएं (educational usefulness)) निम्नांकित है—

(1) आंकिक रेटिंग विधि (Numerical rating method)-

आंकिक रेटिंग विधि (numerical rating method) वैसी विधि को कहा जाता है जिसमें शिक्षकों को, जो प्रेक्षक (observer) या रेटर (rater) का काम करते हैं, निश्चित अंको का एक क्रम (sequence) दिया जाता है। ये सभी अंक अच्छी तरह परिभाषित होते हैं तथा शिक्षक बालकों या शिक्षार्थियों (learners) को अपने सामान्य अनुभव के आधार पर परिभाषाओं के अनुसार अंक प्रदान करते हैं और उन अकों का योग ज्ञात करके उनका सांख्यिकीय विश्लेषण (statistical analysis) कर एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। थन को पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया दिए गए बिंदुओं (points) (यहाँ 3-बिंदु मापनी है) में से किसी एक अंक (number) को देकर व्यक्त करता है। बाद में प्रत्येक ऐसे अंको को जोड़कर उसका सांख्यिकीय विश्लेषण कर शिक्षक वालक या शिक्षार्थी के शीलगुण के बारे में एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचते हैं।

(2) आकृतिक रेटिंग विधि (Graphic rating method) -.

 

यह विधि आंकिक रेटिंग विधि (numerical rating method) के ही समान है। अंतर सिर्फ इतना ही है कि आकृतिक रेटिंग विधि में मापनी बिंदु का एक वर्णनात्मक संकेत (descriptive cues) दिया रहता है। यहाँ आंकिक रेटिंग विधि (numerical rating method) के समान मापनी बिंदुओं का कोई संख्यात्मक मान (numerical values) नहीं होता है। शिक्षक या शिक्षा मनोवैज्ञानिक जो प्रेक्षक (observer) रूप में कार्य करते हैं, शिक्षार्थियों के प्रति अपने विचार दिए गए वर्णनात्मक संकेत (descriptive cues) के ऊपर एक टिक या सही (४) का निशान या कोई अन्य इसी प्रकार का चिह्न लगाकर करते हैं।

बाधित चयन रेटिंग विधि (Forced choice rating method)-

 

इस विधि में प्रत्येक एकांश (item) में दो या दो से अधिक गुणों (attributes) का एक सेट होता है जिनमें से किसी एक को चुनकर शिक्षक किसी बालक का रेटिंग करते हैं। किसी एक एकांश के भीतर आनेवाले सभी गुण समान रूप से अनुकूल (favourable) या समान रूप से प्रतिकूल (unfavourable) दीख पड़ते हैं जिसमें से शिक्षक को किसी एक को जो उनके विचार में प्रेक्षण किए जानेवाले छात्र या शिक्षार्थी के लिए सही होता है, चुनने के लिए बाध्य (forced) किया जाता है।

कोटि विधि (Ranking Method)

शिक्षा मनोविज्ञान में कोटि विधि का भी प्रयोग कुछ खास-खास परिस्थितियों में, जैसे बालकों के आत्मनिष्ठ शीलगुणों (subjective traits) के अध्ययन में किया गया है। रिली तथा लेविस (Reilly & Lewis, 1983) के अनुसार कोटि विधि का प्रयोग कुछ आत्मनिष्ठ शीलगुण जैसे ईमानदारी (honesty) तथा अन्य नैतिक एवं चारित्रिक शीलगुणों (moral and character traits) के अध्ययन में एक असमानांतर विधि (unparallel method) के रूप में की जाती है। इस विधि में शिक्षक बालकों को या शिक्षार्थियों को दिए गए शीलगुणों के आधार पर उच्च कोटि (high rank) से निम्न कोटि (lower rank) की दिशा में श्रेणीकरण करते हैं। जैसे शिक्षक बालकों की ईमानदारों के शीलगुण पर श्रेणीकरण करते हुए कोटि 1.2.3, आदि रूप में श्रेणीकरण कर सकते हैं। कोटि-1 में अधिकतम ईमानदारी दिखानेवाले बालक को कोटि-2 में उससे कम ईमानदारी दिखानेवाले बालक को, कोटि-3 में उससे कम ईमानदारी दिखानेवाले बालक को और इसी तरह से सबसे अंतिम कोटि में उस छात्र को रखा जा सकता है जिसमें ईमानदारी का गुण सबसे कम हो। इस विधि को कोटिक्रम विधि ( Meth of rank order ) भी कहा जाता है शिक्षक इश विधि द्वारा छात्रों शीलगुणों अध्ययन तभी करते जब छात्रों की संख्या कम होती है। कैटेल (Cattell. 1975) तथा स्कीनर के अनुसार, यदि कोटि विधि उपयोग परिस्थिति किया जाता जिसमे बालकों संख्या अधिक है, विधि विश्वसनीयता (reliability) कुप्रभाव पड़ता है। कोटि (ranking) लेने के बाद प्राप्त आँकड़ों सांख्यिकीय विश्लेषण किया जाता है एक पहुँचा जाता जैसे मान लिया जाए शिक्षक बालकों व्यक्तित्व के शीलगुणो अर्थात उत्तरदायित्व (responsibility) समयनिष्ठता (punctuality) 1.2, 3, श्रेणीकरण (ranking) करते हैं। इस तरह शिक्षक कोटियों का दो प्राप्त जाता कोटि उत्तरदायित्व शीलगुण पर तथा कोटि से 10 तक समयनिष्ठता (punctuality) के शीलगुण इसके बाद कोटियों के दोनों सेटों आधार विशेष सांख्यिकी (statistics) जैसे स्पीयरमैन कोटि अंतर विधि (Spearman Rank difference method) या कोटि अंतर विधि (Kendall Rank difference method) प्रयोग शिक्षक दोनों सह-संबंध (correlation) लिया जाए सह-संबंध (correlation) 0.88 आता है। ऐसी परिस्थिति में शिक्षक इन 10 छात्रों बारे इस निष्कर्ष पहुँचेंगे इनमें उत्तरदायित्व एवं समयनिष्ठता दोनों धनात्मक रूप से सह-संबंधित (positively correlated) अर्थात छात्रों में उत्तरदायित्व का शीलगुण बढ़ने से उसके साथ समयनिष्ठता (punctuality) का भी शीलगुण बढ़ता है।

कोटि विधि (Ranking method) के कुछ गुण (merits) तथा दोष (demerits) हैं। विधि प्रमुख गुण (merits) निम्नांकित-

(i) कोटि विधि (ranking method) शिक्षक सभी संभावित कोटियों (ranks) का प्रयोग कर बालकों के व्यवहारों एवं शीलगुणों का अध्ययन करते हैं। जैसे यदि शिक्षक को छात्रों श्रेणीकरण (ranking) करना यानी उसे 1 10 कोटि तक का प्रयोग करना है, तो वह इनमें प्रत्येक कोटि का प्रयोग कर बालकों के शीलगुणों का अध्ययन करेगा न इसमें मात्र पहले चार कोटियों (ranks) या अंतिम चार कोटियों का प्रयोग करेगा और बाकी को छोड़ देगा। इससे फायदा यह होता है कि कोटि विधि द्वारा प्राप्त आँकड़ों की विश्वसनीयता (reliability) तथा वैधता (validity) बढ़ जाती है।

(ii) कोटि विधि में केंद्रीय प्रवृत्ति की त्रुटि error of central tendency), कठोरता की त्रुटि (error of severity) तथा उदारता की त्रुटि (error of leniency) जैसी भयानक त्रुटियाँ अपने-आप नियंत्रित रहती है, क्योंकि शिक्षक को कुछ छात्रों या बालकों को उच्च कोटि, कुछ को निम्न कोटि तथा कुछ को मध्य कोटि (middle rank) की श्रेणी में रखना ही पड़ता है।

(iii) कोटि विधि में एक फायदा यह बताया गया है कि इसमें शिक्षक या प्रेक्षक को प्रत्येक बालक को एक-दूसरे से विभेदित (discriminate) करते हुए श्रेणीकरण (ranking) करना होता अतः इस विधि द्वारा शिक्षक को बालकों के बारे में सापेक्ष अंतर (relative difference) का सही-सही ज्ञान हो पाता है और शिक्षक एक वैज्ञानिक एवं दुरुस्त (sound) निष्कर्ष पर पहुंचने में समर्थ हो पाते हैं।

इन गुणों के बावजूद कोटि विधि के कुछ अवगुण (demerits) हैं, जो अग्रांकित हैं-

(i) कुछ शिक्षा मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि कोटि विधि (ranking method) द्वारा बालको या शिक्षार्थियों के शीलगुणों की आपसी भिन्नता का अंतर पता नहीं चलता। उदाहरणस्वरूप, यदि चार बालक द्वारा किसी बुद्धि परीक्षण (intelligence test) पर आए प्राप्तांक (score) जैसे 70,69, 50, 30 को कोटि (rank) में बदला जाए तो क्रमश इसके कोटि (rank) 1, 2, 3 तथा 4 होंगे। लेकिन, यहाँ स्पष्ट है कि कोटि 1 और 2 तथा 3 और 4 में अंतर मात्र एक-एक का है, परंतु वास्तव में जिस बुद्धि प्राप्तांक को इन कोटियों द्वारा बताया जा रहा है, उनमें आपस में काफी अधिक अंतर है। 70 से 69 मे मात्र एक प्राप्तांक का अंतर है जबकि 50 से 30 प्राप्तांक में 20 का अंतर है। कोटि विधि में स्पष्टत इन अंतरों का कोई ध्यान नहीं रखा जाता।

(ii) कोटि विधि (ranking method) का प्रयोग वहीं अधिक होता है जब बालकों या छात्रों की संख्या कम हो। इनकी संख्या अधिक होने से कोटि विधि के प्रयोग में काफी अधिक कठिनाई बढ़ जाती है।

इन परिसीमाओं (limitations) के बावजूद कोटि विधि का प्रयोग शिक्षा मनोविज्ञान में कुछ खास परिस्थितियों में, विशेषकर शिक्षार्थियों या बालकों के अव्यक्त शीलगुणों (implicit traits) के अध्ययन में काफी किया जाता है।

 कालानुक्रमिक विधि (Longitudinal Method)

 

शिक्षा मनोविज्ञान में कालानुक्रमिक विधि (longitudinal method) का भी उपयोग काफी किया जाता है। इस विधि में मनोवैज्ञानिक छात्रों के एक ही समूह का अध्ययन भिन्न-भिन्न समयों पर उनके व्यवहार एवं अन्य गुणों में होनेवाले परिवर्तनों के आधार पर करते हैं। यह एक समय अवधि शोध विधि (time span research method) है जिसे सैन्ट्रोक’ (Santrock, 2006) के शब्दों में इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है, “कालानुक्रमिक शोध में एक ही व्यक्ति का एक समयावधि तक प्राय कई वर्षों या उससे भी अधिक समय तक अध्ययन किया जाता है।” कालानुक्रमिक शोध विधि की इस परिभाषा पर ध्यान दें, तो निम्नांकित दो बातें स्पष्ट होंगी

(i) इसमें व्यक्तियों के एक ही समूह का अध्ययन किया जाता है।

(ii) अध्ययन बार-बार भिन्न-भिन्न समय अंतराल (time interval) पर दोहराया जाता है। अध्ययन कितनी बार दोहराया जाएगा यह अध्ययनकर्ता के उद्देश्य के ऊपर निर्भर करता है। इसके बारे में कोई निश्चित नियम नहीं है। इसी तरह से एक अध्ययन से दूसरे अध्ययन के बीच का समय कितना होगा, इसके बारे में भी कोई निश्चित नियम नहीं है। इसका निर्णय अध्ययनकर्ता अध्ययन की जानेवाली समस्या के स्वरूप तथा अध्ययन के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए करता है।

कालानुक्रमिक विधि का उपयोग वैसी परिस्थिति में किया जाता है जब शिक्षा मनोवैज्ञानिक छात्रों में होनेवाले परिवर्तनों के आधार पर तुलनात्मक अध्ययन करना चाहते है। शिक्षा मनोवैज्ञानिक इस विधि का उपयोग प्रायः छात्रों में भाषा विकास, पेशीय विकास तथा संज्ञानात्मक विकास (cognitive development) व्यक्तित्व विकास (personality development), चिंतन क्षमता (thinking ability) आदि का अध्ययन करने के लिए करते हैं।

जैसे, एक अध्ययन जिसे कासपी, एलडर तथा बेम (Caspi, Elder & Bem, 1987, 1988) ने जिक्र किया है, में शिक्षा मनोवैज्ञानिकों के एक समूह द्वारा यह जानने की कोशिश की गई कि बच्चे जो अन्त्य व्यक्तित्व शैली (extreme personality style) जैसे या तो अत्यधिक क्रोध या फिर अत्यधिक शर्मीलापन (shy) तथा गैरमिलनसार (withdrawn) व्यवहार दिखलाते हैं, वयस्क होने पर भी क्या वे ऐसे व्यवहारों को दिखलाना जारी रखते हैं? इसके अतिरिक्त अध्ययनकर्ताओं द्वारा यह भी जानने की कोशिश की गई कि किस तरह की अनुभूति (experience) से व्यक्तित्व में स्थायित्व (stability) या परिवर्तन आता है और अधिक आक्रामकता (aggressiveness) तथा गैरमिलनसार व्यवहार का परिणाम लंबी अवधि के समायोजन (adjustment) पर क्या पड़ता है। इस अध्ययन में 8 साल के बच्चों का चयन करके उनका अध्ययन भिन्न-भिन्न बच्चों में 30 साल की उम्र तक किया गया। परिणाम में पाया गया कि उपर्युक्त दोनो व्यक्तित्व शैली वयस्कावस्था में भी करीब करीब स्थायी रूप से बना रहता है अर्थात ऐसे बच्चे वयस्क होने पर भी लगभग वैसा ही व्यवहार करते देखे गए। हाँ, कुछ ऐसे वयस्कों में बचपन के शैली में परिवर्तन भी होते देखा गया। इन अन्त्य व्यक्तित्व शैली का वयस्कावस्था में बने रहने से वयस्कावस्था का समायोजन (adjustment) भी प्रभावित होता पाया गया। जो बच्चे आक्रामक थे, वयस्क होने पर उनमें अपने कार्यस्थल पर सहकर्मियों से लड़ने-झगड़ने की प्रवृत्ति, एक नौकरी को छोड़कर दूसरी नौकरी में चले जाना, बेरोजगारी आदि अधिक पाई गई। ऐसे वयस्क जो बाल्यावस्था में गैरमिलनसार (withdrawn) रहे हैं, वे प्राय देर से शादी करते पाए गए और वे अपनी जीवन-वृत्ति (career) को काफी देर से सँवार पाए।

कालानुक्रमिक विधि के मुख्य गुण (merits) निम्नांकित हैं—

(i) इस विधि द्वारा व्यवहारों एवं मानसिक प्रक्रियाओं (mental processes) में होनेवाले परिवर्तनों (gradual changes) का अध्ययन क्रमबद्ध रूप से किया जाना संभव होता है।

(ii) इस विधि में प्रतिदर्श (sample) को समान एवं तुल्य (equivalent) रखने से संबंधित समस्या अपने आप ही समाप्त हो जाती है, क्योंकि व्यक्तियों का एक ही समूह होता है जिसे भिन्न-भिन्न समय अंतरालों पर अध्ययन किया जाता है।

(iii) इस विधि में कारण परिणाम संबंध (cause-effect relationship) को यथार्थ रूप में व्याख्या करने में काफी सहायता मिलती है, क्योंकि अध्ययन भिन्न-भिन्न छात्रों की भिन्न-भिन्न विकासात्मक अवस्थाओं में किया जाता है।

इस विधि की प्रमुख परिसीमाएँ (limitations) निम्नांकित हैं—

(1) इस विधि में समय अधिक लगता है तथा धन भी काफी खर्च होता है, क्योंकि अध्ययन को बहुत लंबे समय तक जारी रखना पड़ता है।

(ii) प्रायः यह देखा गया है कि जब अध्ययन कई वर्षों तक चलता है, तो प्रयोज्य (subject) की संख्या धीरे-धीरे घटती चली जाती है। छात्र बीमारी के कारण, दूसरी जगह चले जाने के कारण या माता-पिता द्वारा फिर से उसी अध्ययन में भाग लेने की अनुमति नहीं देने के कारण इस तरह के अध्ययन में दोबारा तिवारा या फिर से जब जरूरत होती है, तो शामिल नहीं हो पाते है। इसका परिणाम यह होता है कि प्रतिदर्श छोटा हो जाता है जो अप्रातिनिधिक (nonrepresentative) भी हो जाता है जिससे प्राप्त परिणाम की वैधता (validity) तथा सामान्यीकरण (generalisation) दोनों की शक के घेरे में आ जाता है।

(iii) कुछ अध्ययनकर्ताओं का मत है कि कालानुक्रमिक विधि में चूंकि प्रयोज्यों के एक ही समूह पर बार-बार अध्ययन किया जाता है, अतः कुछ प्रयोज्य अपने अनुभव का विशेष फायदा उठाकर अनावश्यक रूप से अपने निष्पादन को उन्नत बना लेते है। इस तरह के प्रभाव को अभ्यास प्रभाव (practice effect) कहा जाता है जिससे परिणाम में अवांछित अंतर आ जाता है।

(IV) कालानुक्रमिक अध्ययन में दस्ता प्रभाव (cohort effect) भी देखने को मिलता है। एक ही अवधि में जन्मे व्यक्तियों के समूह को दस्ता समूह (cohort group) कहा जाता है। इस तरह के अध्ययन में सिर्फ वैसे छात्रों का अध्ययन किया जाता है जो समान समयावधि (time period) में विकसित हुए हैं और जो एक विशेष सांस्कृतिक (cultural) एवं ऐतिहासिक अवस्था (historical conditions) से प्रभावित हुए हैं। फलत छात्रों के एक दस्ता (cohort) से प्राप्त परिणाम दूसरे छात्र जो किसी दूसरे दस्ता में पले-बढ़े एवं विकसित हुए थे, पर लागू नहीं होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कालानुक्रमिक विधि में क्रास-पीढ़ी समस्या (cross-generational problem) भी उत्पन्न होता है।

इन अलाभों के बावजूद कालानुक्क्रमिक विधि का उपयोग कर शिक्षा मनोविज्ञानी छात्रों को भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में होनेवाले व्यवहारों का विशेषकर शैक्षिक उपलब्धियों, अभिरुचियों (interests). सामाजिक एवं सांवेगिक व्यवहारों का अध्ययन करते है।

अनुप्रस्थ-काट विधि (Cross-sectional Method)

यह विधि कालानुक्रमिक विधि का ठीक विपरीत है। इस विधि में अध्ययनकर्ता भिन्न-भिन्न उम्रो एवं सामाजिक-आर्थिक स्तरों से छात्रों का चयन कर कई समूह बनाते है जिनका अध्ययन एक समय में एकसाथ किया जाता है। उसके बाद इन सभी समूहों में अध्ययन किए जानेवाले व्यवहार का मापन कर आपस में तुलना करता है। इस तरह से इस अध्ययन विधि में कई दस्ता समूह (cohort groups) तैयार कर उनका एक ही समय में अध्ययन किया जाता है। जैसे, अध्ययनकर्ता चौथी कक्षा आठवी कक्षा तथा 12वीं कक्षा के छात्रों के आत्म-सम्मान (self-esteem) का अध्ययन इस विधि द्वारा करना चाह सकता है और तब वह इन तीनों कक्षाओं से छात्रों का एक-एक समूह लेकर उनके आत्म-सम्मान का अध्ययन एक ही बार में एक ही समय में कर सकता है। यह निश्चित रूप से अनुप्रस्थ-काट विधि का उदाहरण होगा।

इस विधि के प्रमुख गुण (merits) निम्नांकित हैं

(i) इस विधि से अध्ययन करने में समय की काफी बचत होती है, क्योंकि प्रयोज्यों के भिन्न-भिन्न समूहों का चयन कर उनपर एक ही बार में आँकड़े संग्रह कर लिए जाते है। कालानुक्रमिक विधि में ऐसी बात नहीं होती है। इसमें समय की काफी बर्बादी होती है, क्योंकि एक ही समूह पर भिन्न-भिन्न समय अंतराल पर अध्ययन किया जाता है।

(ii) इस विधि में धन भी कम खर्च होता है, क्योंकि अध्ययन एक ही बार में पूरा हो जाता है।

(iii) इस विधि में अध्ययनकर्ता को काफी लंबे समय तक प्रयोज्यों से सहयोग की उम्मीद बनाकर रखने की जरूरत नहीं होती है।

(iv) इस विधि से प्राप्त आँकड़ों (data) को काफी लंबे समय तक संग्रह कर रखने की जरूरत नहीं पड़ती है।

इस विधि की प्रमुख सीमाएँ (limitations) निम्नांकित है

(i) इस विधि से अध्ययन करने में समूह में होनेवाले परिवर्तन की दिशा (direction) का पता नहीं चलता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि अध्ययन भिन्न-भिन्न समय अंतरालों पर न करके एक ही समय में कर लिया जाता है।

(ii) कालानुक्रमिक विधि के समान इसमें भी दस्ता प्रभाव (cohort effect) देखने को मिलता है। यह बात उस समय उत्पन्न होती है जब अनुप्रस्थ-काट विधि में जो प्रयोज्यों के समूह होते हैं, उनका आपसी उम्र विभेद (age differences) अधिक होता है। जैसे, मान लिया जाए कि एक समूह 5 वर्ष के छात्रों का है तो दूसरा समूह 20 वर्ष के छात्रों का है। अब इन दोनों समूहों के बीच किसी भी व्यवहार की तुलना उतनी सार्थक नहीं होगी, क्योंकि दोनों उम्र-समूह की अनुभूतियाँ एवं सामाजिक तथा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भिन्न-भिन्न होगी।

(iii) इस विधि द्वारा किसी एक छात्र में होनेवाला विकास तथा व्यवहारों में होनेवाले परिवर्तनों को भी ठीक ढंग से अध्ययन नहीं किया जा सकता है।

इन परिस्थितियों के बावजूद शिक्षा मनोविज्ञानियों द्वारा अनुप्रस्थ-काट विधि का उपयोग छात्रों के विभिन्न समूहों के व्यवहारों का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए प्रायः किया जाता है।

आनुक्रमिक डिजाइन विधि (Sequential Design Method)

 

इस अध्ययन विधि में मनोवैज्ञानिक सचमुच में कालानुक्रमिक विधि (longitudinal method) तथा अनुप्रस्थ काट विधि (cross-sectional method) दोनों को ही एकसाथ मिलाकर अध्ययन करने की कोशिश करते हैं। इस डिजाइन पर आधृत अध्ययन विधि में शोधकर्ता या अनुसंधानकर्ता विभिन्न आयु या वर्ग के सहभागियों (participants) या प्रयोज्यों का चयन करके कई दस्ता समूह बनाकर उसका भिन्न-भिन्न समय अंतराल (time interval) पर अध्ययन करते हैं। जैसे, शिक्षा मनोवैज्ञानिक तीन वर्गों से अर्थात वर्ग 6 वर्ग 7 एवं वर्ग 8 से तीन दस्ता समूह (cohort group) का चयन करके उनके संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन दो वर्षों तक (अर्थात एक अभी और दूसरा एक वर्ष बाद) कर सकते है। इसमें पहला दस्ता समूह को वर्ग 6 में और फिर वर्ग 7 में जाने पर, दूसरा दस्ता समूह को वर्ग 7 में और फिर वर्ग 8 में जाने पर तथा तीसरा दस्ता समूह को 8 में और फिर वर्ग 9 में जाने पर किया जा सकता है। इस अध्ययन विधि में कालानुक्रमिक (longitudinal) तथा अनुप्रस्थ काट (cross-sectional) दोनों विधियों की विशेषताएँ सम्मिलित होती है। अतः यह एक ऐसी विधि का उदाहरण है जो आनुक्रमिक डिजाइन पर आधारित है।

आनुक्रमिक डिजाइन पर आधृत विधि के तीन लाभ (advantages) है जो इस प्रकार हैं

(1) इस विधि में अध्ययनकर्ता इस बात की जाँच आसानी से कर सकता है कि एक ही आयु या वर्ग के विभिन्न छात्रों का आपस में तुलना करके यह पता लगा सकते हैं कि दस्ता प्रभाव उत्पन्न हो रहा है कि नहीं।

(ii) इस तरह की अध्ययन विधि में अध्ययनकर्ता कालानुक्रमिक (longitudinal) तथा अनुप्रस्थ-काट (cross-sectional) दोनों ही तरह की तुलना कर सकते हैं। अगर दोनों से परिणाम समान आते हैं तो अध्ययनकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है कि हमारे परिणाम सही है।

(iii) यह डिजाइन निश्चित रूप से दक्ष (efficient) है। जरूरत पड़ने पर उक्त अध्ययन में अध्ययनकर्ता 4 साल की अवधि तक प्रत्येक दस्ता समूह का अध्ययन 2 साल के लिए भी कर सकता है। इस अध्ययन विधि की कुछ परिसीमाएँ (limitations) हैं जो इस प्रकार हैं

(i) अनुप्रस्थ-काट (cross-sectional method) की तुलना में यह विधि अधिक खर्चीली एवं समय लेनेवाली शोध विधि है।

(ii) इस विधि से प्राप्त परिणाम के बारे में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि क्या अध्ययन से प्राप्त विकासात्मक परिवर्तन (developmental change) दस्ता समूह से परे भी सामान्यीकृत (generalize) किया जा सकता है ?

इन परिसीमाओं के बावजूद यह अध्ययन विधि शिक्षा मनोविज्ञान में काफी लोकप्रिय है, क्योंकि यह कालानुक्रमिक विधि तथा अनुप्रस्थ-काट विधि दोनों की जरूरतों को पूरा करती है।

इन्हें भी देखें

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