संज्ञानात्मक विकास / Cognitive Development :- शिक्षा मनोवैज्ञानिकों का मत है कि शिक्षकों के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है उन्हें समझना नितांत ही आवश्यक है वह के छात्रों का संज्ञानात्मक विकास। संज्ञान से तात्पर्य है एक ऐसी प्रक्रिया से होता है जिसमें संवेदना, प्रत्यक्ष, प्रतिमा, धरना, समस्या समाधान, चिंतन, तर्कना जैसी मानसिक प्रक्रियाएं सम्मिलित होती है।
अतः संज्ञान से तात्पर्य है कि संवेदी सूचनाओं को ग्रहण करके उसका रूपांतरण, विस्तरण, संग्रहण, पूर्णलाभ तथा उसका समुचित प्रयोग करने से होता है। संज्ञानात्मक विकास से तात्पर्य बालकों में किसी संवेदी सूचनाओं को ग्रहण करके उस पर चिंतन करके तथा क्रमिक रूप से उसे इस लायक बना देने से होता है इसका प्रयोग विभिन्न परिस्थितियों में करके वह तरह तरह का समस्याएं का समाधान आसानी से कर लेते हैं। स्पष्टत: इस ढंग का विकास बालकों में होने वाले बौद्धिक विकास से संबंधित है जो वर्ग या कक्षा में शिक्षकों के लिए एक प्रमुख विषय है। संज्ञानात्मक विकास के अध्ययन क्षेत्र में जीन पियाजे का सिद्धांत एक अभूतपूर्व सिद्धांत माना जाता है। उन्होंने बालकों में चिंतन एवं तर्कना के विकास के लिए जैविक तथा संरचनात्मक तथ्यों पर बल डालकर संज्ञानात्मक विकास की व्याख्या की है।
संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development)
संज्ञानात्मक विकास तथा संज्ञान से तत्पर उपयोग पंक्तियों में निहित है।
जीन पियाजे एक झलक
जीन पियाजे के प्रमुख स्विस मनोवैज्ञानिक थे। जिनका परीक्षण प्रणा विज्ञान में हुआ था। अल्फ्रेड बिने के प्रयोगशाला में बुद्धि परीक्षणों के साथ जब कार्य कर रहे थे उसी समय बालकों के संज्ञानात्मक विकास पर कार्य शुरू किए थे। यह अवधि 1922 से 1923 की थी। उन्होंने 1923 तथा 1932 के बीच में पाठ्य पुस्तकें प्रकाशित की जिनमें संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत से जो सबसे महत्वपूर्ण बात का पता चलता है वह है कि पियाजे के अनुसार बालकों में वास्तविकता के स्वरूप के बारे में चिंतन करने तथा उसे खोजने की शक्ति ना तो सिर्फ बालकों के परिपक्वता स्तर पर और ना सिर्फ उनके अनुभवों पर निर्भर करता है बल्कि इन दोनों के अंत: क्रिया द्वारा निर्धारित होता है।
♥ जीन पियाजे के अनुसार विकास के विभिन्न अवस्थाओं में संज्ञानात्मक विकास (cognitive development)
1. संवेदिगात्मक ( Senssory Moter Stage) ( 0-2 ) वर्ष
;- यह अवस्था बालक के जन्म से लेकर 2 वर्ष की अभी तक रहती है। इस अवस्था में बालक इंद्रियां और संवेदनाओं के द्वारा ज्ञान प्राप्त करते हैं। इस अवस्था में जीवन के प्रथम वर्ष में बालक किसी वस्तु की अवधारणा विकसित करता है इसके बाद बालक अपने पहुंच से परे लुप्त हुई वस्तुओं का संज्ञान करने का प्रयत्न करता है। वस्तुओं का आकार अपने मस्तिष्क में ग्रहण करने के पश्चात वह अभ्यास के अवसरों का उपयोग करता है। जन्म के समय बालक कोई ज्ञान नहीं रखता धीरे-धीरे वह ज्ञान प्राप्त करता है। यह समस्त ज्ञान बालक इंद्रियों और संवेदनाओं के द्वारा प्राप्त करता है। इस आयु में बालक शारीरिक रूप से वस्तुओं को पकड़कर इधर उधर रखता है उन्हें उठाता है हिलाता डुलाता है और वस्तुओं को मुंह में डालकर ज्ञान प्राप्त करता है।
इस अवस्था के कुछ मुख्य विशेषताएं निम्न है
- शरीर पर नियंत्रण करने की क्षमता का विकास।
- वस्तुओं के स्थायित्व की अवधारणा का विकास
- व्यवहारिक ज्ञान की उपस्थिति तथा प्रतीकात्मक ज्ञान की अनुपस्थिति ।
- स्थान एवं आवश्यकताएं भी व्यक्तिनिस्ठ होते हैं। अर्थात बालक अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ही कार्य करता है। जो वह सोचता है समझता है या चाहता है उसे ही वह सही मानता है दूसरे के विचारों तथा आवश्यकताएं आदि को समझने की क्षमता उनमें नहीं होती है जिसे पियाजे ने आत्मकेंद्रिता (Egocentrism) भी कहा है।
यह इस अवस्था की प्रमुख विशेषता है। इस अवस्था को पिया जी ने निम्नलिखित सा अवस्थाओं में विभाजित किया है
1. प्रथम उपवस्था ( Stage -1 ) 〈 0-1 Month 〉
— : इस अवस्था की विशेषताएं निम्नलिखित है
- जन्मजात स्वत: प्रेरित क्रियाएं
- आत्मकेंद्रिता
- बुद्धि के आदिम अवस्था / बुद्धि का विकास बाला तथा वातावरण के बीच होने वाली अंतः क्रिया पर निर्भर है
2. द्वितीय उपवस्था ( Stage -2 ) 〈 1-4 Month 〉
:- इस अवस्था की निम्नलिखित विशेषताएं हैं
- कारण तथा उसके प्रभावों का अभ्यास
- क्रियाओं के पुर्नावर्ती
- वस्तुओं को पकड़ना तथा छोड़ना
- विभिन्न अनुक्रियाओं तथा वातावरण के साथ समन्वय
- नवीन व्यवस्थापन के फल स्वरुप खेलने की प्रक्रिया
- आत्मकेंद्रिता आके स्थिति
3. तृतीय उपवस्था ( Stage -3 ) 〈 4-8 Month 〉
:- इस अवस्था में द्वितीय वृत्तीय क्रियाएं इन्हें व्रतिय क्रियाएं इसलिए कहा जाता है क्योंकि बालक अपनी क्रियाएं बार-बार दोहराते हैं। इस अवस्था की द्वितीय क्रियाएं पर्यावरणीय घटनाओं को बनाए रखने के उद्देश्य से की जाती है। जो की संयोग से उसके पास आता है उदाहरणस्वरूप जब शिशु संयोगवश झुनझुने को हिलाता है एवं आवाज सुनता है तो उसी आवाज को पुन: सुनने के लिए वह झुनझुने को बार-बार हिलाता है इस पर वह झुनझुना हिलाना सीख जाता है वह वस्तुओं को परिचालित करना भी सीखता है। इस क्रिया के लिए दो पद्धतियों की समन्वय की आवश्यकता होती है — पहला है पकड़ना और दूसरा है सुनना।
4. चतुर्थ उपवस्था ( Stage – 4 ) 〈 8-12 Month 〉
इस अवस्था में बालक ऐसे जटिल क्रियाओं को कर सकता है जो उसके इच्छा को प्रकट करता है। चिन्हों व प्रतीकों के माध्यम से वह पूर्ण घटना का आभास कर सकता है बालक नहीं वस्तुओं के प्रति प्रतिज्ञा करता है ऐसे संकेतों को भी समझने का प्रयत्न करता है। खेल इसका मन बहलाने का प्रमुख साधन बन जाता है और छुपी वस्तुओं का भी खोज करने का प्रयत्न करता है। यह उसके समिति विकास को दर्शाता है
5. पंचम उपवस्था ( Stage -5 ) 〈 12-18 Month 〉
यह तृतीय वक्रित प्रतिक्रियाओं की अवस्था है। यह क्रियाएं प्रयोगात्मक और सृजनात्मक हो जाती है। इस अवस्था में बालक के लिए एवं वस्तुओं के संबंध की खोजबीन करता है। शिशु वस्तु का प्रयोग उसे देखने समझने और नवीन वस्तु की खोज करने का प्रयास करता है
6. षष्ठम उपवस्था ( Stage – 6 ) 〈 18 – 24 Month 〉
:- यह मस्तिस्क संयोग द्वारा नए साधनों की खोज की अवस्था है। इस अवस्था में वास्तविकता के मानसिक प्रतिनिधित्वो को बनाने की योग्यता विकसित होती है। वालक का प्रत्यक्षीकरण करके उसकी प्राप्ति का प्रयत्न करने लगता है । बालक प्रयत्न और मूल उपागम द्वारा उचित क्रियाओं करने लगता है भाषा विकास की प्रारम्भिक पहचान के रूप में बालक बोलने लगता है 2 वर्ष की अवस्था तक पहुँचते – पहुँचते बालक अनेक उपस्थित एवं स्मृति जन वस्तुओ एवं अनुभवो का अनुक्रमण करने लगता है। बालक ढूंढने की क्षमता को प्राप्त करने लगता है। कार्य करने की समझने की क्षमता भी प्राप्त परिपक्वता प्राप्त कर लेता है। वह कारण एवं परिणामों में संबंध स्थापित करने लगता है।
पूर्व क्रियात्मक अवस्था ( 2-7)year
यह भाषा कौशल विकास के प्रमुख अवस्था है जिसमें संदर्भ शब्दों की समझ पैदा होने लगती है। अब बालक वस्तु एवं उनके संदर्भ को प्रकट करने वाले शब्दों में अंतर स्पष्ट करने लगता है जिससे बालक अधिक से अधिक सूचनाएं एकत्र करने लगता है। धीरे धीरे उसमें तार्किक गणितीय संप्रत्यों का विकास होने लगता है। क्रियाओं का मानसिक प्रस्तुतीकरण प्रारंभ हो जाता है जिसे विचार कहा जाता है यह अंत: र्दृष्टि द्वारा सीखना या सूझ द्वारा सीखना की आदिम अवस्था है जिसमें बालक किसी बाह व्यवहार के बिना अपनी समस्याओं को मानसिक रूप से सुलझाने लगता है। इस अवस्था में कुछ व्यवहार जो प्रकट होते हैं वह इस प्रकार हैं
1. आत्मकेंद्रीयता :-
आत्मकेंद्रीयता का अर्थ केवल स्व: को केंद्र मानकर सभी क्रियाएं करने से है। पूर्व क्रियात्मक अवस्था में बालक अपने से हटकर दूसरे का दृष्टिकोण या विचार को नहीं समझ पाता है। सभी विचार अव्यवस्थित रहते हैं। वह स्वयं जिस प्रकार सोचता या समझता है वह सोचता है कि दूसरे भी उसी प्रकार सोचते या समझते हैं।
2. श्रृंखलाबद्ध केंद्रविहीन चिंतन :-
:- इसका अर्थ विचारों या केंद्रविहीन या बिंदुविहीन होना है। अर्थात बालकों के मस्तिष्क में विचारों की श्रृंखलाएं बिना किसी एक बिंदु या केंद्र के बनती है। यह सभी विचार अव्यवस्थित रहती है। इस प्रकार वह विचारों में समन्वय या क्रम स्थापित नहीं कर पाता है
3. मानवीयकरण:-
:- इसका तात्पर्य निर्जीव वस्तुओं की मनुष्य के रूप में संबोधित करने से यह व्यवहार करने से है। पूर्व क्रियात्मक अवस्था में बालक मनुष्य तथा वस्तुओं में अंतर स्पष्ट नहीं कर पाता । वह दोनों को मनुष्य जैसा संबोधित करता है।
पूर्व क्रियात्मक अवस्था को दो भागों में बांटा गया है
1. पूर्व संकल्पनात्मक काल
:- 2 वर्ष का बालक कार्य कारण स्थान तथा वस्तुओं के आपसी संबंध को समझने लगता है भाषा की दृष्टि से उसके विचार अभी अस्पष्ट होते हैं। अभी वह विचारों एवं भावो को प्रकट करता है। उसकी भाषा पर उसका नियंत्रण नहीं होता। नई वस्तुओं को खोजने के प्रति वह उत्सुक रहता है। स्मृति पर आधारित प्रतिमाओं का आधार प्रारंभ हो जाता है जिससे उसके प्रत्यक्ष वस्तुओं एवं स्थूल अनुभूतियो पर निर्भरता कम होने लगती है। इस अवस्था की मुख्य विशेषताएं अनुकरण खेल पूर्व संकल्पना एवं भाषा विकास का प्रारंभ है।
2. अंत: प्रज्ञचिंतन काल
यह अवस्था में बालक दो प्रकार की भाषा या बोली का प्रयोग करता है।
1.आत्म केंद्रित भाषा;- इसमें बालक अपने आप से बोलता है।
2. सामाजिक भाषा;- जिसे बालक दूसरों से बोलता है।
:- इस अवस्था में बालक सामूहिक मोनोलॉग प्रदर्शित करता है जिस भाषा का प्रयोग किए बिना ही वह एक दूसरे को प्रेरित करता है। धीरे धीरे उनमें उचित भाषा प्रयोग की क्षमता विकसित हो जाती है। वाहय वातावरण से सामंजस्य एवं आंतरिक संरचना का आत्मसात संतुलित होने लगता है। अभी बालक का चिंतन अपूर्ण ही रहता है जिससे वह कर कारण तथा उचित अनुचित का भेदभाव ठीक से नहीं समझ पाता है। यही कारण है कि बालक इस प्रकार के निर्णय मैसूर एवं अंत: र्दृष्टि का प्रयोग करता है जबकि पौड़ अवस्था तक तर का सहारा लेते हैं
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