10 Types Principles of Development | विकास के नियम

Principles of Development | विकास के नियम:- बालकों में होनेवाले विकासात्मक परिवर्तनों (developmental changes) को ठीक ढंग से समझाने के लिए शिक्षकों से यह पूर्णत: अपेक्षित है कि वे विकास के नियमों (principles) से भलीभांति परिचित हो इसका सबसे बड़ा लाभ शिक्षकों को यह होता है कि वे शिक्षार्थियों (learners) की शारीरिक एवं मानसिक समस्याओं का मूल्यांकन सही संदर्भ में कर पाते हैं और उनका उचित निर्देशन भी कर पाते हैं। ज्ञानिकों ने विकास के मुख्य दस नियमों की चर्चा की है, जो नीचे इस प्रकार है

Principles of Development | विकास के नियम

(1) विकास में परिवर्तन होता है (Development involves changes)

– मानव शिशुओं के विकास का पहला नियम यह है कि इसमें गुणात्मक परिवर्तन (qualitative changes) तथा परिमाणात्मक परिवर्तन (quantitative changes) दोनों होते हैं। जैसे जैसे शिशुओं की उम्र बढ़ती जाती है उनके सीखने की क्षमता में परिवर्तन, सांवेगिक नियंत्रण में परिवर्तन किसी विशेष भाषा को सीखने की क्षमता में परिवर्तन आदि होते हैं और ये सभी गुणात्मक परिवर्तन के उदाहरण हैं। इन गुणात्मक परिवर्तनों के अलावा बालकों में परिमाणात्मक परिवर्तन जैसे शरीर की बनावट में परिवर्तन, आकार में परिवर्तन, शरीर के भीतरी अगों में परिवर्तन आदि भी होता है। बालकों की प्रत्येक उम्र में इनमें कई तरह के परिवर्तन हमेशा होते रहते हैं। किसी भी खास उम्र में इनमें कुछ परिवर्तन प्रारंभिक अवस्था में होते हैं. कुछ पहले से होकर इस उम्र में चोटी पर पहुंच जाते हैं और कुछ परिवर्तन अपने पतन की अवस्था में होते हैं। इन सभी तरह के परिवर्तनों का मुख्य उद्देश्य बालकों के भीतर छिपी आनुवंशिक अंत शक्ति (genetic potentuals) की अभिव्यक्ति तथा प्राप्ति से होता है। दूसरे शब्दों में इन परिवर्तनों का उद्देश्य बालकों को मानसिक रूप से तथा शारीरिक रूप से सबसे उत्तम व्यक्ति बनाना होता है। मैसलो (Maslow. 1954) ने इसे आत्म-यथार्थता (self-actualization) की संज्ञा दी है।

(2) प्रारंभिक विकास परवर्ती विकास से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है (Early development is more critical than later development)

:- मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि बालकों के प्रारंभिक विकास (early development), जैसे प्रथम 5 या 6 साल की अवधि का विकास तुलनात्मक रूप से बाद के सालों में हुए विकास या परवर्ती विकास की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। इन प्रारंभिक वर्षों में हुए विकास का महत्त्व सर्वप्रथम प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्रायड (Freud) ने कुसमायोजित बालकों (maladjusted children) के अध्ययन के फलस्वरूप बताया। इनके अनुसार किशोरों (adolescents) के कुसमायोजन का कारण बचपन की कुछ प्रतिकूल अनुभूतियाँ तथा मानसिक संघर्ष होता है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने भी फ्रायड की इस विचारधारा का समर्थन किया है। सौनटेग तथा कागन (Sontag & Kagan, 1963) ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया कि बालकों के प्रथम पाँच साल का स्कूली अनुभव उपलब्धि प्रेरक (achievement motive) के विकास के लिए महत्वपूर्ण होता है और वयस्कावस्था (adulthood) में होनेवाला उपलब्धि व्यवहार (achievement behaviour) बहुत हद तक इस बाल्यावस्था के उपलब्धि व्यवहार से संबंधित होता है। प्रारंभिक विकास की अवस्था में अन्य बातों के अलावा व्यक्तियों के साथ बालको का अनुकूल अंतर्वैयक्तिक संबंध (favourable interpersonal ●relationship) सांवेगिक संतुष्टि (emotional satisfaction), उदार माता-पिता (democratic parents) तथा अनुकूल पर्यावरणी उत्तेजना (favourable environmental stimulation) आदि को महत्त्वपूर्ण बताया गया है। मनोवैज्ञानिकों ने प्रारंभिक विकास को परवर्ती विकास (later development) की तुलना में दो कारणों से महत्वपूर्ण बताया है। पहला कारण तो यह बताया गया है कि प्रारंभिक अवस्था में बताई गई बातों को बालक जल्द ही एक आदत (habit) का रूप दे देते हैं तथा दूसरा कारण यह कि यही वह अवस्था होती है जहाँ बालकों को मार्गनिर्देशन की जरूरत भी पड़ती है और यदि उसे सही रास्ते पर ले आया जाता है तो फिर पूरे जीवनकाल में वह एक समायोजित व्यक्ति (adjusted person) के रूप में बना रहता है।

(3) विकास परिपक्वता तथा सीखने की उपज है (Development is the product of maturitice and learning)

– मनोवैज्ञानिकों ने यह दिखा दिया है कि पूर्वप्रसवकाल (prenatal period) में परिपक्वता (maturation) का महत्त्व प्रशिक्षण (training) या सीखना से अधिक होता है। परंतु जन्म के बाद बालकों के सम्पूर्ण विकास में परिपक्वता तथा प्रशिक्षण दोनों की भूमिका प्रधान हो जाती है। सचाई यह है कि बालक में विकास सही अर्थ में परिपक्वता तथा प्रशिक्षण दोनों की अंतः क्रिया (interaction) पर निर्भर करता है। परिपक्वता का संबंध चूँकि आनुवंशिक अंतः शक्तियों (hereditary potentials) से होता है, अतः बालकों के विकास में यह एक तरह से चहारदीवारी (boundary) बना देता है जिसके भीतर उन अंत शक्तियों (potentialities) क विकास उचित वातावरण मिलने से हो पाता है। यही कारण है कि अधिकतर शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने यह मत अभिव्यक्त किया है कि पूर्ण विकास के लिए बालकों को आनुवंशिक अंतः शक्तियों को उचित वातावरण प्रदान कर ठीक समय पर उत्तेजित करना आवश्यक है।

(4) विकासात्मक पैटर्न पूर्वानुमेय होता है (Developmental patterns are predictable)

:- विकासात्मक पैटर्न पूर्वप्रसूतिकाल (prenatal period) में तथा जन्म के बाद भी एक खास क्रम (sequence) में होता है, अतः वह पूर्वानुमेय होता है। शिशुओं में पूर्वप्रसूतिकाल में मूलतः एक जननिक क्रम (genetic sequence) होता है जिसमें एक निश्चित समय पर कुछ गुण दीख पड़ते हैं। जन्म के बाद भी विकास का ऐसा ही क्रमबद्ध पैटर्न देखने को मिलता है। प्रयोगात्मक अध्ययनों के आधार पर दिखाया गया है कि पूर्वप्रसूतिकाल तथा जन्म के बाद (postnatal life) के समय में बच्चों का शारीरिक विकास तथा मानसिक विकास दो प्रकार के नियमों से निर्देशित होता है— मस्तकाधोमुखी नियम (cephalocaudal law) तथा निकट-दूर नियम (proximodistal law)। इन दोनों नियमों को एकसाथ मिलाकर ‘विकासात्मक दिशा का नियम’ (law of developmental direction) कहा जाता है। मस्तकाधोमुखी नियम में शारीरिक विकास सिर से पैर की दिशा में होता है। दूसरे शब्दों में, इस नियम के अनुसार सिर की बनावट तथा कार्य में पहले विकास होता है, फिर धड़ की बनावट तथा कार्य में और अंत में पैर की बनावट तथा कार्य में (चित्र 5.1 देखें)। मस्तकाधोमुखी विकास के परिणामस्वरूप प्रायः यह देखा जाता है कि विकास के क्रम में शिशु पहले सिर उठाता है, इसके बाद वह बैठना प्रारंभ कर देता है, फिर खड़ा होता है।
और अंत में चलना प्रारंभ कर देता है। निकट-दूर नियम (proximodistal law) के अनुसार, बालाको में शारीरिक विकास शरीर के केंद्र (centre) मे उसके छोर (extreme) की ओर होता है। इस नियम के अनुसार पहले पेट या छाती के क्षेत्र में विकास होगा, फिर बाँह में और अंत में अंगुलियों में  मनोवैज्ञानिकों के कुछ अध्ययनों से यह भी स्पष्ट हो गया है कि शारीरिक विकास के समान मानसिक विकास भी पूर्वानुमेय (predictable) होता है। बुद्धि (intelligence) से संबंधित कालानुक्रमिक अध्ययनों (longitudinal studies) में जन्म से 50 साल तक की जीवन अवधि (life span) में होनेवाले मानसिक विकास को सम्मिलित किया गया है। ओवेन्स (Owens, 1966) तथा स्केई (Schale, 1972) ने स्पष्ट रूप से दिखाया है कि प्रथम 16 या 18 साल में मानसिक विकास सबसे अधिक होता है। ओडेन (Oden, 1968) द्वारा एक दूसरा अध्ययन किया गया जिसमे ऊपर के इस निष्कर्ष की पुष्टि की गई है और उन्होंने यह भी बताया कि कुछ अपवादों को छोड़कर) तीव्र (superior) बुद्धि के बच्चे ही बाद में तीव्र बुद्धि के वयस्क होते हैं (Superior children become superior adults)।

शिक्षा मनोवैज्ञानिकों को विकास के इस नियम से दो लाभ होते हैं। वे बालकों की प्रारंभिक बौद्धिक अभिक्षमता (intellectual aptitudes) के ज्ञान के आधार पर एक संतुलित शैक्षिक कार्यक्रम (educational plan) बनाने में समर्थ हो जाते हैं तथा इससे शिक्षकों एवं माता-पिता को यह भी निश्चय करने में सुविधा होती है कि बालक भविष्य में किस तरह का व्यवसाय (vocation) पसंद करेगा।

(5) विकासात्मक पैटर्न में पूर्वानुमेय गुण होते हैं (Developmental pattern has predictable characteristics)

– विकासात्मक पैटर्न (developmental pattern) के कुछ गुण ऐसे होते हैं जिनके बारे में आसानी से पूर्वकथन (prediction) किया जा सकता है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों यह स्पष्ट हो गया है कि मानसिक तथा शारीरिक विकास के बारे में पांच गुण एसे होते हैं जो पूर्वानुमेय (predictable) होते है

(1) सभी बालकों में एक उम्र या अवस्था में एकसमान ढंग का विकासात्मक पैटर्न देखने को मिलता है और उसके बाद फिर एक दूसरी अवस्था आती है। जैसे सामान्यतः सभी बालक चलना प्रारंभ करने के पहले अपने पैर पर खड़ा होने की अनुक्रिया करते हैं।

(ii) विकास सामान्य अनुकिया (general response) से विशिष्ट अनुक्रिया (specific response) की ओर होता है। जैसे जन्म के कुछ दिनों बाद बालक में पहले हाथ-पैर फैकले की प्रक्रिया होती है जो एक सामान्य अनुक्रिया है, परंतु बाद में वह विशिष्ट क्रिया, जैसे सामने रखी गई वस्तु को पकड़ने की प्रक्रिया आदि करता है।

(iii) विकास की प्रक्रिया गर्भधारण (conception) से मृत्यु तक सतत होती है, परंतु इसकी रफ्तार कभी तेज़, तो कभी मंद हो जाती है।

(iv) यद्यपि शारीरिक एवं मानसिक गुणों का विकास सतत होता है, फिर भी भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में विकास को गति भिन्न-भिन्न होती है। जैसे बालकों के हाथ, पैर और नाक किशोरावस्था करीब-करीब पूर्णतः विकसित हो जाते हैं, परंतु चेहरे का निचला हिस्सा तथा कंधे में विकास उम समय तक काफी धीमी गति से होता रहता है। उसी तरह से मानसिक विकास जैसे रचनात्म कल्पना (creative imagination) बाल्यावस्था (childhood) में तेजी से बढ़ती है और किशोरावस्था में अधिकतम बिंदु पर पहुँच जाती है। परंतु, विवेधन (reasoning) की शक्ति का विकास उस समय तक भी धीमी गति से ही होता रहता है। उसी तरह से किशोरावस्था (adolescence) में रटन स्मृति (rote memory) तथा मूर्त वस्तुओं (concrete objects) के लिए स्मृति अमूर्त (abstract) तथा सैद्धांतिक वस्तुओं की स्मृति की अपेक्षा कम होती है।

(v) मानसिक विकास (mental development) तथा शारीरिक विकास (physical development) आपस में धनात्मक रूप से (positively) सह-संबंधित होते हैं, अर्थात शारीरिक विकास में वृद्धि होने पर मानसिक विकास में भी वृद्धि होती है और शारीरिक विकास में कमी होने पर मानसिक विकास में भी कमी होती है।

(6) विकास में वैयक्तिक विभिन्नता होती है (There are individual differences in development)

—यद्याप सभी बालकों के लिए विकासात्मक पैटर्न (developmental pattern) एकसमान होता है, फिर भी प्रत्येक बालक में विकास अपने ढंग से तथा भिन्न-भिन्न रफ्तार (rate) से होता है। रफ्तार में विभिन्नता का कारण अंशतः आनुवंशिकता (heredity) तथा अंशतः वातावरण में पाए जानेवाले कारक होते हैं।

(7) विकासात्मक पैटर्न में भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ होती हैं (There are periods in the developmental pattern)

— बालकों में विकासात्मक काल (developmental periods) गर्भधारण से प्रारंभ होकर उस उम्र पर समाप्त हो जाता है जहाँ वह लगिक (sexual) रूप से परिपक्व हो जाता है। हरलॉक (Hurlock, 1978) के अनुसार इन दोनों छोरों (extremes) के बीच पाँच विकासात्मक काल होते. हैं— पूर्वप्रसूतिकाल (prenatal period) जो गर्भधारण से जन्म तक की होती है, शैशवावस्थ (infancy) जो जन्म से 10 से 14 दिन तक की होती है, बचपनावस्था (babyhood) 14 दिन से 2 साल तक की होती है, वाल्यावस्था (childhood) जो 2 साल से 12 साल तक की होती है तथा 16 साल तक की होती है। इन भिन्न-भिन्न विकासात्मक कालों में कुछ समय संतुलन (equilibrium) का होता है तथा कुछ समय असंतुलन (disequilibrium) का होता है। संतुलन की अवस्था में बालकों में वातावरण के साथ अच्छे समायोजन (good adjustment) के सभी लक्षण दिखते हैं और वे अक्सर खुश नजर आते हैं। असंतुलन की अवस्था में बालक वातावरण के साथ ठीक ढंग से समायोजित नहीं कर पाते तथा उनमें चिंता, तनाव एवं बेचैनी (restlessness) बनी रहती है।

(8) प्रत्येक विकासात्मक अवस्था में कुछ सामाजिक प्रत्याशाएँ होती हैं (Each developmental period has some expectations)

प्रत्येक समाज (society) तथा संस्कृति (culture) में ऐसा देखा गया है कि बालक एक खास उम्र होने पर कुछ खास व्यवहारों को अन्य व्यवहारों की अपेक्षा जल्दी सीख लेते हैं। फलतः समाज बच्चों से भी उनकी उम्र के अनुसार कुछ उम्मीद (expectations) करता है जिसे सामाजिक प्रत्याशा (social expectations) कहा जाता है। प्रसिद्ध बालमनोवैज्ञानिक हेभिगहर्स्ट (Havighurst, 1972) ने इसे विकासात्मक पाठ (Developmental Task) कहा है।

(9) विकास के प्रत्येक क्षेत्र में कुछ अंतर्निहित कठिनाई होती है (Every area of development has potential hazards)

– कभी-कभी विकासात्मक पैटर्न सामान्य होते हुए भी बालकों में कुछ इस प्रकार के कारक उत्पन्न हो जाते हैं जिससे विकास के क्षेत्र में बाधा उत्पन्न हो जाती है और बालको का विकास मंद पड़ जाता है। इनमें कुछ कारक पर्यावरणीय (environmental) होते हैं, जैसे उचित तथा प्रोत्साहन देनेवाला वातावरण का न मिलना तथा कुछ कारक बालक के भीतर में होते हैं, जैसे अंतःस्रावी ग्रंथियों (endocrine glands) का अविकसित होना आदि।

(10) विकास की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में सुख-शांति एकसमान नहीं होते हैं (Happiness varies at different periods in development) –

मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह पता चला है कि बचपनावस्था (babyhood), जो करीब जन्म के 2 सप्ताह से 2 साल तक की होती है, सबसे अधिक सुख-शांति का समय होता है। बाल्यावस्था (childhood) की अवधि, जो 6 साल से प्रारंभ होकर 12 साल तक की होती है, बालक तुलनात्मक रूप से अधिक खुश नजर आते हैं। प्रौढ़ावस्था (adulthood) का काल सबसे अशांत तथा अप्रिय होता है, क्योंकि इसमें तरह-तरह की नई-नई जवाबदेही व्यक्ति के कंधों पर आ जाती है।

इस तरह स्पष्ट है कि बालकों में होनेवाले शारीरिक तथा मानसिक विकास के कुछ नियम हैं। जिनके आधार पर उन्हें आसानी से समझा जा सकता है।

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