essay on home language and school language | गृह भाषा एवं स्कूल भाषा

  गृह भाषा एवं स्कूल भाषा पर एक निबंध लिखिए। (Write an essay  on home language and school language.)

essay on home language and school language | गृह भाषा एवं स्कूल भाषा

:-  घर की भाषा (Home language) भाषा का भावों से गहरा संबंध होता है। बालक माता के दूध के साथ-साथ घर की भाषा भी सीखता है। भाषा का प्रयोग बालक के घर में उसके माता-पिता तथा बंधुगण करेंगे, वही भाषा बालक भी सीखेगा। यह संबंध केवल अनुकरणात्मक ही न होकर, भावात्मक भी होता है। बालक अपने माता-पिता से स्नेह करता है और उसके माता-पिता भी उसे बड़ा प्यार करते हैं।

इसी कारण बालक सर्वप्रथम अपने घर की भाषा सीखता है। घर की भाषा के साथ उसका संबंध धीरे-धीरे इतना गहरा हो जाता है कि वह जो कुछ भी सोचता है वह घरेलू भाषा में ही सोचता है। कालांतर में अन्य भाषाओं का प्रयोग करने की क्षमता का विकास हो जाने पर भी वह जितनी सुगमता से घरेलू भाषा का प्रयोग करता है, उतना किसी अन्य भाषा का नहीं। प्रौढ अवस्था में भी घर की भाषा का जो संबंध व्यक्ति के जीवन में होता है वह किसी अन्य भाषा से नहीं होता है। व्यक्ति किसी भी समय सोते-जागते अपने विचारों की अभिव्यक्ति जितनी सहजता से घर की भाषा में कर लेता है उतना अधिकार उसका किसी अन्य भाषा में कभी नहीं हो पाता है। प्रांतीयता की भावना का विकास इसी आधार पर होता है क्योंकि घरेलू भाषा हमें अभिव्यक्ति की सहजता प्रदान करती है।

घर की भाषा का महत्त्व (Importance of home language)

घर की भाषा वह होती है जो बालक माता से सीखता है अत: इसे मातृभाषा के नाम से भी जाना जाता है। आत्म निर्देशन हेतु तथा भावों की अभिव्यक्ति के लिए तथा दूसरों के विचारों को ग्रहण करने के लिए मानव को किसी-न-किसी भाषा का प्रयोग करना पड़ता है, परंतु अपने अंतर्द्वन्हों, उद्वेगों तथा मनोभावों का अभिव्यंजन जितनी सुंदरता, सरलता तथा स्पष्टता से वह अपनी बरेलू भाषा में कर सकता है उतना किसी अन्य भाषा में नहीं। अपने समाज के शिष्ट जन जिस भाषा में विचार-विनिमय, कामकाज, लिखा-पढ़ी करते हों, वही घरेलू भाषा या मातृभाषा है। जिस भाषा का प्रयोग बालक माता से सीखता है और जिसके माध्यम से वह अपने परिवार एवं समुदाय में अपने विचारों की अभिव्यक्ति करता है, सही अर्थ में उस बालक की वही मातृभाषा है किन्तु उत्तर प्रदेश में गाँव के बालक प्रारम्भ में अपनी भावाभिव्यक्ति प्रायः अवधी, ब्रज, भोजपुरी बोलियों के माध्यम से करते हैं फिर भी उत्तर प्रदेश के शिष्ट समाज के विचार-विनिमय का माध्यम खड़ी बोली हिन्दी है। उत्तर प्रदेश की मातृभाषा हिन्दी ही है, न कि कोई बोली विशेष और छात्र को इसी हिन्दी का ज्ञान कराना है। भाषा की गतिशीलता के कारण प्रत्येक भाषा की अनेक उपभाषाएँ और बोलियाँ सन्निहित होती हैं। वस्तुत: माता जिस बोली अथवा उपभाषा को बोलती है वही बालक की घरेलू अथवा मातृभाषा होती है। हम अपनी प्रादेशिक बोली बोलते परंतु बाहरी व्यवहार में नागरी हिन्दी बोलते या लिखते अतः हमारी हिन्दी ही हमारे विचारों कार्यों का संकलन यही हमारे मस्तिष्क संस्थान अभिन्न अंग इसी के हम अपनी आत्मरक्षा के भावों व्यक्त करते हैं। साथ वे गुण जिनकी विद्यमानता योग्य नागरिकों के आवश्यक है, इसी द्वारा सुगम है, अर्थात् स्पष्ट चिंतन, मष्ट अभिव्यंजन, विचारों तथा क्रियाओं की यथार्थता, संवेगात्मक एवं रचनात्मक जीवन पूर्णता समुचित के अभिव्यक्त सकती है।

घर की भाषा / मातृभाषा प्रति अरुचि कारण

प्रत्येक देश की मातृभाषा वहाँ राजभाषा हुआ करती दुर्भाग्य का कि लगभग एक वर्ष पराधीनता कारण भारत विदेशी भाषाओं का प्रचार यदि किसी जाति, धर्म अथवा देश पराधीन रखना है, उसके साहित्य को नष्ट दो, वह स्वयं ही नष्ट हो जायेगा। तथ्य के अनुसार हमारी सभ्यता, संस्कृति साहित्य पर छात्रों द्वारा आत्मरक्षा के लिए शासन लिए अपने आदर्शों को ठुकराकर दूसरों की चाटुकारिता में रहते हैं। यही भारत के साथ हुआ।

अरुचि का कारण यह भी कि आज के भौतिक युग सफलता प्राप्त करने लिए हिन्दी कुछ विषयों की अच्छी पुस्तकों अभाव है। अत: अधिक जानकारी लिए शिक्षकों भी अंग्रेजी का मुँह पड़ता है। फलस्वरूप विषया में भारतीय छात्रों लिए उतना महत्त्व रह जाता।

शिक्षा माध्यम घर की भाषा मातृभाषा-

शिक्षाशास्त्रियों का मत कि बालक मातृभाषा घरेलू माध्यम शिक्षा की इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

1. सांस्कृतिक कारण (Cultural causes)

प्रत्येक बालक विशेष सांस्कृतिक वातावरण उत्पन्न होता घर की भाषा मातृभाषा उस वातावरण का महत्वपूर्ण तथा अभिव्यक्ति का साधन घरेलू भाषा ही बालक इस सांस्कृतिक वातावरण को ग्रहण करता बालक प्रारंभिक विचारों बनाने में घरेलू भाषा विशेष हाथ होता किसी ऐसे नये विचार असमर्थ होगा, जिसकी अभिव्यक्ति भाषा सकती यदि किसी विदेशी भाषा का संबंध ऐसी संस्कृति है, जो उसकी संस्कृति से मिलती-जुलती जैसे-अंग्रेज बालक के लिए फ्रेंच संस्कृति, तो नई भाषा को सीखते समय, बालक को केवल भाषा संबंधी कठिनाई होगी। यदि विदेशी भाषा का संबंध एक ऐसी संस्कृति से हो, उसकी संस्कृति से सर्वथा भिन्न जैसे-भारतीय के लिए अंग्रेजी संस्कृति, उस नई भाषा को सीखने में बालक को कठिनाइयाँ बढ़ जाएँगी। बालक का संबंध न केवल नई भाषा से ही होगा, अपितु नए विचारों से भी होगा। यही बात बड़े लोगों के लिए भी लागू होती है।

2. शैक्षणिक कारण (Educational causes)-

शैक्षणिक आधार पर भी यह कहा जाता है कि घरेलू / मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने से घर एवं विद्यालय के मध्य जो अंतर दिखायी देता है वह नहीं रहेगा। जब बालक घर से विद्यालय जाने लगता है। तो उसे एक बिल्कुल नवीन वातावरण मिलता है, जो घर के वातावरण से भिन्न होता है। अब तक वह अपने घर में अपने छोटे भाई-बहनों के साथ रहता था जहाँ उसे अपनी माता का ढेर सारा स्नेह प्राप्त था। इस समय उसे विभिन्न विचारों को ग्रहण करना पड़ता है जो घर से भिन्न होते हैं। यदि घरेलू भाषा का ही प्रयोग किया जाए तो वह विद्यालय में अच्छी प्रगति कर सकता है।

विद्यालय की भाषा (School language)-

बालक विद्यालय में जिस भाषा में शिक्षा ग्रहण करता है वह विद्यालय की भाषा कही जाती है। विद्यालय में बालक को घर से बिल्कुल भिन्न वातावरण मिलता है। वहाँ उससे यह आशा की जाती है कि वह चुपचाप शांत होकर बैठा रहे। उसे जैसा कहा जाए वह वैसा ही करे। जो प्रश्न उससे पूछ जाएँ, उन्हीं का वह उत्तर दे। उसके सामने नये-नये विचार तथा नई-नई बातें आती हैं और इसे इसका प्रमाण देना होता है कि उसने उन नए विचारों को तथा नई बातों को जल्दी से जल्दी ग्रहण कर लिया है। यहाँ प्रत्येक बात बालक को घर से भिन्न मिलती है और यदि कभी-कभी वह यह देखते हैं कि बहुत से बालक अपने आप को इस नवीन वातावरण के अनुकूल बनाने में असमर्थ पाते हैं तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं और यदि भाषा भी जिसमें यह सब नई बातें रखी जाती हैं, उसकी मातृभाषा से भिन्न है तो बालक की कठिनाइयाँ कितनी बढ़ जाएँगी इसका अनुमान हम भलीभाँति लगा सकते हैं। यदि बालक को पाठशाला में आते हुए बहुत समय हो भी जाए, फिर भी उसे भिन्न-भिन्न विषयों में ढेर सारे पाठ पढ़ने होंगे। वह भूगोल अथवा इतिहास का पाठ सरलता से समझ सकेगा, यदि वह उसकी घरेलू भाषा में पढ़ाया जाएगा। दूसरी भाषा के माध्यम से इन विषयों में पढ़ाने में बालक पर भार बढ़ जायेगा और उसकी प्रगति अत्यन्त धीमी होगी।

जिस भाषा का प्रयोग बालक अपने घर में करता है, उसमें शिक्षा देने से घर और पाठशाला का संबंध निकटता का बनाया जा सकता है जो कुछ बालक पाठशाला में पढ़ेगा, उसका प्रयोग वह घर में कर सकता है। इसके अतिरिक्त, माता-पिता भी पाठशाला की समस्याओं को अच्छी प्रकार से समझ सकेंगे और बालक की शिक्षा में पाठशाला को कुछ योगदान दे सकेंगे। माता-पिता किसी भी प्रकरण को घरेलू भाषा में जितनी अच्छी तरह से अभिव्यक्त कर सकते हैं उतना अन्य भाषाओं में नहीं। इसके अतिरिक्त बालक भी कोई भी प्रकरण जितनी अच्छी तरह से घरेलू भाषा में सोख लेता है उतना अन्य भाषाओं के प्रयोग से नहीं सीख पाता है।

घरेलू भाषा की अपेक्षा विद्यालय में प्रयोग की जाने वाली भाषा के स्तर की शक्ति अधिक आँकी जाती है। इसका प्रमुख कारण यही है कि विभिन्न विषयों का पठन छात्र विद्यालयीय भाषा में करता है और उस भाषा का निरंतर उपयोग करने से उस भाषा पर भी पकड़ उत्पन्न हो जाती है। बालक विद्यालयीय भाषा में ही वाचन करता है तथा मौखिक अभिव्यक्ति के लिए भी विद्यालयीय भाषा का ही प्रयोग किया जाता है। विद्यालयीय भाषा में विभिन्न विषयों को पढ़ने तथा मौखिक अभिव्यक्ति के लिए भी उसी का सहारा लेने के कारण उसकी शक्ति अधिक मानी जाती है। अधिकांश पाठ्य पुस्तकें भी विद्यालयीय भाषा में होती हैं, जिनका छात्र को निरंतर उपयोग करना पड़ता है। पाठ्य पुस्तकों में कई प्रकरण होते हैं जिन पर छात्र भाषण दे सकता है तथा वाद-विवाद कर सकता है। इस प्रकार के प्रकरणों से छात्र विद्यालयीय भाषा का प्रयोग शीघ्रता से सीख लेता है और उसमें प्रवीणता भी अर्जित कर लेता है।

विभिन्न प्रकार की परीक्षाओं का मूल्यांकन भी विद्यालयीय भाषा में ही होता है। पठित सामग्री पर विद्यालयीय भाषा में ही प्रश्न पूछे जाते हैं तथा निष्कर्ष निकाला जाता है। बालक विद्यालयीय भाषा के व्याकरण से भी परिचित हो जाता है। वह विद्यालयीय भाषा में इतना प्रवीण हो जाता है कि शब्दों का लक्ष्यार्थ तथा व्यंग्यार्थ जान लेता है। अनुक्रमणिका परिशिष्ट, पुस्तक सूची आदि के प्रयोग की योग्यता भी प्राप्त कर लेता है। विविध साहित्यिक विधाओं -निबंध, नाटक, कहानी, उपन्यास, जीवनी, संस्मरण आदि के प्रमुख तत्वों की पहचान कर सकने की योग्यता उसमें विद्यालयीय भाषा के कौशल में प्रवीण होने के कारण ही आती है। विद्यालयीय भाषा के निरंतर प्रयोग से उसमें बोधगम्यता, अर्थ ग्राह्यता तथा समीक्षात्मक योग्यता का भी विकास हो जाता है। विभिन्न प्रकार के गद्य तथा पद्य साहित्य के सौन्दर्य बोध का ज्ञान तथा उनका अभिव्यक्तिकरण जितना अच्छी तरह से वह विद्यालयीय भाषा में कर सकता हैं, उतना अन्य भाषाओं में नहीं और यदि विद्यालयीय भाषा तथा मातृभाषा एक ही हो तो भाषा पर उसकी पकड़ बहुत ही सुदृढ़ होती है। इस प्रकार विद्यालयीय भाषा की शक्ति में गत्यात्मकता अधिक होती है।

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