Thoughts of John Deway | john dewey philosophy of education | जॉन डेवी के विचार

Thoughts of John Deway जॉन डेवी अमेरिका के महान विचारक और दार्शनिक एवं शिक्षा शास्त्री थे जॉन डीवी का जन्म कब हुआ 1859 मैं वाशिंगटन मैं हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में हुई थी। बचपन ग्रामीण वातावरण में बीता। उनके पिता एक साधारण व्यापारिक थे। माता एक आदर्श महिला थी। लेकिन उनका लगाव अध्यात्म एवं दर्शन से था। जिसने जॉन डेवी को कॉलेज की शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। B.a  की उपाधि वाशिंगटन से ही प्राप्त किया और विश्वविद्यालय स्तर पर कांट ( Kant )  ( एक साइकोलॉजिस्ट ) के दर्शन पर उन्होंने पीएचडी की उपाधि प्राप्त की जिसमें जॉन डेवी ने कहा विद्यालयों में प्रत्येक स्तर पर बाल को एवं बालिकाओं के लिए प्रयोगशाला विभिन्न विषयों में स्थापित होने चाहिए। कोलंबिया विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर के रूप में नियुक्त होते हुए 1950 में इस पद पर रहते हुए 1952 में उनका देहांत हो गया।

Thoughts of John Deway | जॉन डीवी के अनुसार पाठ्यक्रम

Thoughts of John Deway

जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

:- Jhon Deway एक प्रयोगवादी शिक्षा स्वास्थ्य थे। उनका मानना था कि शिक्षा के उद्देश्य कभी भी पूर्व निश्चित नहीं हो सकते हैं। क्योंकि परिवर्तित भौतिक एवं सामाजिक वातावरण की भांति शिक्षा के उद्देश्य परिवर्तित होते रहते हैं शिक्षा का उद्देश्य बालक के समस्त शक्तियों का विकास करना है। आत: शिक्षा का उद्देश्य तात्कालिक होगा। इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य वही होंगे जो समय स्थान तथा स्थिति एवं बालक की स्वभाविक शक्तियों का विकास करें।

व्यक्तिगत उद्देश्य

1. अनुभव का सतत्पूर्ण निर्माण

:- जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य अनुभवो का निर्माण करना है। इसलिए बालकों को केवल उन्हीं अनुभवों को प्राप्त करने का अवसर प्रदान करना चाहिए जो उसके विकास के लिए उपयोगी हो।

2. वातावरण के साथ समायोजन

:- शिक्षा द्वारा बच्चों की योग्यताओं का विकास करना चाहिए जो उसके वर्तमान जीवन को समृद्ध उत्तम बनाए जिसमें वह सफलतापूर्वक मूल्य तथा अनुमानों की जांच प्रयोगात्मक परीक्षण के आधार पर अपनी प्रतिभा को  स्थिर बना सके।

3.गतिशील एवं लचीले मन का निर्माण

:- जॉन डीवी ने शिक्षा का एक उद्देश्य गतिशील एवं लचीले मन का निर्माण करना बताया है। जिसमें उन्होंने कहा है कि यदि हम सामाजिक प्रयोगवादी पद्धति चाहते हैं तो हमें पूर्व निर्धारित मूल्य का त्याग करना होगा। मूल्यों आदर्शों का निर्माण मानव के अनुभवों से होता है। इसलिए मन यदि गतिशील बल लचीला होगा तो वह जीवन के सभी परिस्थितियों को सामना करते हुए वर्तमान तथा भविष्य के मूल्यों का निर्माण करने में समर्थ होगा।

सामाजिक उद्देश्य

1. सामाजिक कुशलता की प्राप्ति

:- जॉन डेवी के अनुसार मनोज जो कुछ करता है वह समाज में रहकर उसकी क्रियाओं में भाग लेकर करता है। समाज को समझना और अपने आप को समाज में समायोजित करना यही शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य में सामाजिक कुशलता का विकास करना है।

2. लोकतंत्र जीवन का प्रशिक्षण

जॉन डेवी लोकतांत्रिक समाज के समर्थक थे। जिसमें उन्होंने कहा बालकों के लिए स्वस्थ शिक्षा क्रिया करने की शिक्षा योग्य गृहस्थी व्यवसाय नैतिकता एवं चरित्र नागरिकता और अवकाश काल का उचित उपयोग करने का उद्देश्य बताया।

इस प्रकार जॉन डेवी ने व्यक्तिगत एवं सामाजिक दृष्टि से शिक्षा के उद्देश्यों का निर्माण किया।

जॉन डेवी के अनुसार पाठ्यक्रम

1. लचीला पाठ्यक्रम ( Flexible )

:- जॉन डेवी के अनुसार पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिए। जो बालक की आवश्यकताओं की पूर्ति करता हो। जिससे बालक स्वयं सृजन कर सके।

2. रुचिपूर्ण पाठ्यक्रम ( Interested )

:- जॉन डीवी ने पाठ्यक्रम को बालकों के रूचि के अनुसार निर्धारण करने को कहा है। इनमें अन्वेषण करना परीक्षण करना कल्पनात्मक अभिव्यक्ति की रूचि पर आधारित पाठ्यक्रम हो जिसमें हस्तकला संगीत भाषा अंक गणित विज्ञान काष्ठ कला पाकविज्ञान सिलाई आदि विषय शामिल है।

बाल केंद्रित शिक्षा ( Childcentered Education )

:- जॉन डेवी का मानना है कि बालक की रुचि क्षमताओं योग्यताओं व आवश्यकताओं के अनुरूप करिकुलम होना चाहिए। इसके अंतर्गत इन क्रियाओं को शामिल किया जाना चाहिए जिससे बालक को स्व अनुभव प्राप्त करने का अवसर प्राप्त हो।

सह-संबंधित ( Co-related )

:- जॉन डेवी का कहना है कि जीवन का ज्ञान स्वयं में पूर्ण इकाई है। इसलिए इससे संबंधित समस्त ज्ञान एवं क्रियाएं भी एक पूर्ण इकाई होते हैं। अतः विभिन्न विषयों को एक दूसरे से संबंधित करते हुए शिक्षा देनी चाहिए। क्योंकि इस प्रकार का ज्ञान सभी विषयों को एक दूसरे से पूरक बनाती है।

उपयोगिता ( Utility )

:- जॉन डेवी के अनुसार पाठ्यक्रम में जो भी विषय एवं क्रियाएं सम्मिलित की जाए उसकी उनकी व्यवहारिक योग्यता होनी चाहिए।

क्रिया केंद्रित ( Activity Centered )

:- जॉन डीवी के अनुसार पाठ्यक्रम में क्रियाशीलता के सिद्धांत पर बल दिया है। उनके अनुसार पाठ्यक्रम में उन क्रियाओं को शामिल किया जाए जो बालकों के लिए उपयोग एवं आवश्यक है।

सामाजिक अनुभव का महत्व

:- जॉन डेवी ने कहा कि सामाजिक पर्यावरण में ही मन और बुद्धि का विकास संभव है। इसलिए पाठ्यक्रम निर्माण करते समय सामाजिक अनुभवों को महत्वपूर्ण स्थान देना चाहिए।

नैतिक एवं धार्मिक शिक्षा का उपेक्षा

:- जॉन डेवी ने नहीं देखा था धार्मिक शिक्षा के लिए अलग से विषयों को पढ़ाने के पक्षधर नहीं थे। उनका कहना था कि विभिन्न विषयों एवं सामूहिक के कार्यक्रमों में भाग लेने से ही बालकों में नैतिकता का विकास संभव है।

जॉन डेवी के अनुसार शिक्षण विधि

:- जॉन डेवी किसी भी पूर्व निर्धारित शिक्षण सिद्धांत को स्वीकार करने के पक्षधर नहीं थे। उनका कहना था कि करके सीखने और स्वअनुभव द्वारा ही बच्चों को सिखाया जा सकता है। जिसमें उन्होंने प्रयोगात्मक विधि प्रयोजन विधि सहसंबंध विधि अन्वेषण विधि इत्यादि विधियों की बात कही है।

जॉन डीवी के अनुसार अनुशासन

:- जॉन डीवी के अनुसार परंपरागत शिक्षा धरना के विरोधी थे। वह बालक के आचरण को कृत्रिम साधनों द्वारा नियमित करने में विश्वास नहीं रखते थे। उन्होंने अनुशासन के स्थापना में सामाजिक जीवन के महत्व पर बल दिया है। उनका मानना है कि बालकों को दंड देकर अनुशासित नहीं किया जा सकता है। बल्कि प्रेम सहानुभूति तथा सहयोग की भावना की प्रेरणा देकर ही बालकों को अनुशासित आचरण की शिक्षा दी जा सकती है। जिसके लिए वातावरण को लोकतांत्रिक बनाना आवश्यक है। जिसमें बालक एक दूसरे के प्रति कर्तव्य एवं प्रेम की भावना का सहयोग रखें।

जॉन डेवी के अनुसार शिक्षक

:- जॉन डेवी के लिए स्कूल एक मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक आवश्यकता है। बालाक के अनुभवों तथा समाज के साथ स्कूल के संबंध के आधार पर स्कूल का उपयुक्त आवश्यकताओं से संबंध होता है। इसलिए अध्यापक को समाज का प्रतिनिधि माना गया है। जिसका प्रमुख कारण है जीवन की जटिल समस्याओं का समाधान करना और बालक को सही मार्गदर्शन कर आदर्श नागरिक बनाना। शिक्षा का कार्य से बालक रुचि एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा प्रदान करना है।

जॉन डीवी के अनुसार छात्र

:- जॉन डेवी बालक को शिक्षा का प्रारंभिक केंद्र बिंदु मानते हैं। बालकों के विकास के लिए सभी अध्ययन व शिक्षक उसके सेवक हैं। उन्हें मात्र साधन यंत्र माना गया है।

जॉन डेवी के अनुसार विद्यालय

:- जॉन डेवी ने अपने समय के प्रचलित विद्यालय को आलोचना की तथा यह माना कि विद्यालय में बालकों को करके सीखने का अवसर प्राप्त नहीं होता है। केबल पुस्तकिए शिक्षा ही प्रदान की जाती है। इसलिए उन्होंने प्रयोगात्मक विद्यालयों की स्थापना का सुझाव दिया। जिसमें प्रयोगशाला संचालित शिक्षण संचरण शिक्षण व्यवस्था के बाद की जाए। इससे बालकों में अनुसंधान एवं प्रयोग करने की क्षमता का विकास हो।

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