10 विकास के सिद्धांत | Principles of Development

विकास के सिद्धांत | Principles of Development

Principles of Development | विकास का सिद्धांत :- विकास एक व्यापक प्रक्रिया है जिसमें एक व्यक्ति या एक समुदाय द्वारा उनके शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक स्थान को सुधारा जाता है। यह एक स्थिर प्रक्रिया है जो समय के साथ बदलती रहती है और मनुष्यों और समाज के विभिन्न पहलुओं को संभालने के लिए सामर्थ्य और कुशलता का विकास करती है। विकास के लिए कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांत होते हैं  मानव में वृद्धि और विकास की प्रक्रिया के फल स्वरुप होने वाले परिवर्तन कुछ विशेष सिद्धांतों पर ढले हुए प्रतीत होते हैं। इस सिद्धांत को वृद्धि एवं विकास का सिद्धांत कहा जाता है।

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Principles of Development

विकास के सिद्धांत मुख्यता 10 प्रकार के होते हैं

1. निरंतरता का सिद्धांत

वृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया सतत यानी लगातार रूप से चलती रहती है। यह व्यक्त या अव्यक्त या दोनों ही रूप से संभव है। वृद्धि एवं विकास की निरंतरता के फल स्वरुप विकास प्रतिमान बनाना संभव होता है। वृद्धि एवं विकास की निरंतरता के फलस्वरुप विकास प्रतिमान बनाना संभव होता है तथा भावी के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है।

2. वृद्धि और विकास की गति की दर एक ही नहीं रहती

विभिन्न व्यक्तियों के विकास की गति में भिन्नता होती है और यह विभिनता विकास के संपूर्ण काल में यथावत बनी रहती है। वृद्धि की प्रक्रिया सतत होने के साथ-साथ विकास की कुछ अवस्थाएं में अपेक्षाकृत बदलाव आ सकता है। उदाहरण के लिए बालक अपने प्रथम वर्ष में ऊंचाई की दृष्टि से बड़ी तेजी के साथ बढ़ता है परंतु बाद में रफ्तार धीरे-धीरे कम हो जाती है।

3. विकास क्रम की एकरूपता

विकास की गति एक जैसी ना होने तथा पर्याप्त व्यक्तिगत अंतर पाए जाने पर भी विकास क्रम में कुछ एकरूपता के दर्शन होते हैं। विकास की प्रक्रिया एक खास स्वरूप के अनुसार चलती है। शारीरिक दृष्टि यह सिर से पैर की ओर बढ़ती है जबकि मानसिक क्षेत्र में यह मूर्त से अमूर्त चिंतन की क्षमता में अभिवृद्धि के रूप में प्रकट होती है। इसी प्रकार विकास का क्रम केंद्र से प्रारंभ होता है फिर बाहरी विकास होता है और उसके साथ संपूर्ण विकास। उदाहरण के लिए पहले रीड की हड्डी का विकास होता है उसके बाद भुजाओं हाथ तथा हाथ की उंगलियों का तत्पश्चात इन सब का पूर्ण रूप से संयुक्त विकास होता है।

4. सामान से विशेष की ओर चलता है

विकास की प्रक्रिया आम तौर पर सामान्य से विशिष्ट की ओर चलता है। उदाहरण के लिए व्यक्ति पहले पूरे समूह का प्रत्यक्षीकरण करता है ना कि उस में पाई जाने वाली इकाई का। बालक को सभी आदमी और जानवर पहले एक ही जैसा प्रतीत होते हैं लेकिन धीरे-धीरे आपने विकास की अवस्था के अनुसार उसमें भेद करना जान लेता है।

5. विकास दो दिशाओं में संपन्न होता है

प्रथम परिपक्वता की दिशा में ऐसे व्यक्ति की शारीरिक व मानसिक योग्यता में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। द्वितीय अधिगम की दिशा में जो व्यक्ति को सीखने संबंधी क्षमता का विकास द्वारा दिखाई देता है। इन दोनों ही दिशाओं में होने वाला विकास परस्पर संबंधित है।

6. व्यक्तिगत अंतर का सिद्धांत

विकास की दर में पाई जाने वाली व्यक्तिगत भिन्नता लगभग समान रहती है। अपनी स्वाभाविक गति से वृद्धि और विकास के विभिन्न क्षेत्रों में आगे बढ़ते रहता है और इसी कारण उनमें पर्याप्त भिन्नता देखने को मिलती है। कोई भी एक बालक वृद्धि और विकास की दृष्टि से किसी अन्य बालक के समरूप नहीं होता है।

7. विकास का अवस्थाओं पर निर्भरता

व्यक्ति के विविध पक्षों में विकास की दर भिन्न-भिन्न हुआ करती है। उदाहरण के लिए किशोर अवस्था में सर्जनशीलता और कल्पना का विकास तार्किक क्षमता की तुलना में अधिक तेजी से होता है। जबकि बाल्यावस्था में कार्य करने की अपेक्षा खेलने की प्रवृत्ति अधिक प्रबल होती है। विकास की प्रत्येक अवस्था में अपनी एक पहचान बन जाती है। इस प्रकार से शैशवावस्था बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था में खास तरह के विशेषताएं देखने को मिलती है।

8. विकास की प्रक्रिया एकीकरण का सिद्धांत का पालन करती है

इसके अनुसार बालक अपने संपूर्ण अंग की ओर फिर अंग के भागो को चलाना सकता है। इसके बाद वह उन भागों में एकीकरण करना सीखता है। उदाहरण के लिए एक बालक पहले पूरे हाथ को फिर उंगलियों को और फिर हाथ एवं उंगलियों को एक साथ चलाना सीखता है।

9. शुरुआती विकास के बाद विकास का प्रेरक होता है

मानव जीवन में शेष अवस्था का विकास के बाद की अवस्था के सभी विकास के लिए नीव का काम करता है। यदि मानव को अपने बचपन में ही विकास के सही मौके दिए जाते हैं तो उसके जीवन के बाद के वर्षों में विकास सही दिशा में आगे बढ़ता है। उदाहरण के लिए यदि शैशवावस्था में बालक का शारीरिक विकास उचित ढंग से नहीं हो पाता है तो उसके बाद के पठन-पाठन के प्रतिकूल असर छोड़ता है।

10. परस्पर संबंध का सिद्धांत

विकास की सभी दशाएं जैसे शारीरिक मानसिक सामाजिक संवेगात्मक आदि एक दूसरे से परस्पर संबंधित है। इसमें से किसी भी एक दिशा में होने वाला विकास अन्य सभी दिशाओं में होने वाले विकास को पूरी तरह प्रभावित करने की क्षमता रखता है। उदाहरण के लिए जिन बच्चों में औसत से अधिक बुद्धि होती है वह शारीरिक और सामाजिक विकास की दृष्टि में काफी आगे बढ़े हुए पाए जाते हैं। दूसरी ओर एक क्षेत्र में पाई जाने वाली न्यूनता दूसरे क्षेत्र में हो रही प्रगति में बाधा डाल देती है। यही कारण है कि शारीरिक विकास की दृष्टि से पिछड़ जाने वाला बालक संवेगात्मक सामाजिक और बौद्धिक विकास में भी उतना ही पीछे रह जाता है।

विकास के सिद्धांत का शैक्षणिक महत्व

विकास के सिद्धांत के ज्ञान से हमें या ज्ञात होता है कि सभी बालकों में एक जैसी गति नहीं होती। इसे तात्पर्य है कि हमें प्रत्येक बालक के लिए एक जैसा पढ़ाने का तरीका नहीं अपनाना चाहिए हमें व्यक्तिगत अंतरों का ध्यान रखना चाहिए।

बालकों के विकास के सिद्धांतों के ज्ञान से हम उनसे अधिक या कम आशाएं लगाने की हमारी गलती से मुक्ति पा सकते हैं। हम हमारे प्रयासों को उसकी क्षमता के अनुसार निर्धारित कर सकते हैं।

विकास के सिद्धांत का ज्ञान होने से हम बालकों में से होने वाले कमियों को पहले ही जानकारी उनके उपचार में सहायता प्रदान कर सकते हैं।

विकास के सभी पहलुओं एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। मानसिक शारीरिक संवेगात्मक और सामाजिक विकास का परस्पर संबंध है। इस ज्ञान से हम अपने विषय वस्तु को बालको के सर्वांगीण विकास के लिए उपयुक्त रूप से तैयार कर सकते हैं।

विकास के सिद्धांत का ज्ञान होने से हम बालकों में होने वाले विभिन्न परिवर्तनों के बारे में पहले से ही जानकारी उसके अनुसार आने वाली समस्या और परिवर्तनों के लिए अपने आप को तैयार रख सकते हैं। वातावरण का बालक के विकास और वृद्धि में विशेष योगदान होता है। इस बात का ज्ञान हमें वातावरण क्या आवश्यक सुधार बालकों का अधिक से अधिक कल्याण करने के लिए प्रेरित करता है।

इस प्रकार विकास संबंधी सिद्धांत बालिकाओं की वृद्धि और विकास को उचित दिशा और मात्रा में बनाए रखने के लिए हमें बहुत कुछ आधारभूत  और परामर्श प्रदान करते हैं।

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