Psychoanalysis in Education | शिक्षा में मनोविश्लेषण का योगदान
Psychoanalysis in Education – मनोविश्लेषण (Psychoanalysis) का प्रयोग मनोविज्ञान में तीन अर्थों में होता है। मनोविश्लेषण मनोविज्ञान का एक स्कूल (school) है, मनोविश्लेषण व्यक्तित्व (personality) का एक सिद्धांत है तथा मनोविश्लेषण मनोचिकित्सा (psychotherapy) की एक विधि (method) है। यहाँ हमलोग मनोविश्लेषण का एक स्कूल (school) के रूप में अध्ययन करेंगे।
मनोविज्ञान के एक स्कूल के रूप में मनोविश्लेषण (Psychoanalysis) की स्थापना साइमण्ड फ्रायड (Sigmund Freud) द्वारा नैदानिक परिस्थितियों (clinical situations) में को गई। मनोविज्ञान पर इस स्कूल का प्रभाव काफी अधिक पड़ा तथा इसे मनोवैज्ञानिकों ने प्रथम बल’ (first force) के रूप में भी मान्यता दी है। शिक्षा तथा शिक्षा मनोविज्ञान के खयाल से मनोविश्लेषण (Psychoanalysis) के निम्नांकित पहलुओं (aspects) पर विचार करना आवश्यक है
(1) स्थलाकृतिक संरचना (Topographical Structure)
– फ्रायड ने मन के तीन स्तरों का वर्णन किया है—
चेतन (conscious), अर्द्धचेतन (subconscious or preconscious) तथा अचेतन (Unconscious)। मन के चेतन में वैसी अनुभूतियाँ (experiences) होती है जिससे व्यक्ति वर्तमान समय में पूर्णतः अवगत (aware) रहता है। अर्द्धचेतन (subconscious) में वैसी अनुभूतियाँ संचित होती है जिनसे व्यक्ति वर्तमान समय में अवगत तो नहीं रहता है, परंतु थोड़ी कोशिश करने पर उससे अवगत हो सकता है। अचेतन (unconscious) में वैसी अनुभूतियाँ इच्छाएँ आदि होती है जो कभी चेतन में थीं, परंतु अपनी कामुक (sexual) प्रवृत्ति एवं आक्रामक (aggressive) प्रवृत्ति के कारण पूरी नहीं हो पाईं। फलत चेतन से अचेतन में उन्हें दमित (repress) कर दिया गया। फ्रायड ने चेतन, अर्द्धचेतन तथा अचेतन (unconscious) में अचेतन को अधिक महत्त्वपूर्ण बताया है और कहा है कि मन का एक काफी बड़ा हिस्सा अचेतन होता है और व्यक्ति का व्यवहार अचेतन की प्रेरणाओं (motivations) द्वारा निर्धारित होता है।
शिक्षा में अचेतन प्रेरणाओं का बड़ा ही महत्व बताया गया है। इससे शिक्षार्थियों (learners) के उन व्यवहारों को समझने में शिक्षा मनोवैज्ञानिक को काफी मदद मिलती है जो ऊपर से देखने में बिना कारण के लगते हैं। बालक द्वारा किया गया कोई भी कार्य जिसका स्पष्ट कारण बालक स्वयं नहीं बता पाता है. इसी अचेतन की प्रेरणाओं (unconscious motivations) में छिपा रहता है।
(2) संरचनात्मक या गत्यात्मक मॉडल (Structural or Dynamic Model)
– फ्रायड ने मानव व्यक्तित्व का तीन भाग बताया- उपाहं (id), अहं (ego) तथा पराहं (super ego)। उपाह (id) मूल प्रवृत्तियों (instincts) का भंडार होता है और यह ‘आनंद के नियम’ (pleasure principle) द्वारा संचालित होता है तथा यह पूर्णतः अचेतन होता है। उपाहं केवल आनंद प्राप्त करना चाहता है। अतः उपाह में जो इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं उनका मुख्य सुख की प्राप्ति करना होता है चाहे वह इच्छा सामाजिक दृष्टिकोण से उचित हो या अनुचित, अथवा नैतिक दृष्टिकोण से नैतिक हो या अनैतिक। छोटे-छोटे शिशुओं के व्यक्तित्व में उपाहं की प्रधानता होती है। अहं (ego) व्यक्तित्व का कार्यपालक (executive) होता है तथा यह वास्तविकता के नियम (principle (reality) द्वारा संचालित होता है। अहं को समय तथा वास्तविकता का ज्ञान होता है। अहं अंशतः चेतन, अंशतः अर्द्धचेतन तथा अंशतः अचेतन होता है। पराह (super ego) व्यक्तित्व का नैतिक कमांडर (moral commander) होता है। यह नैतिकता के नियम द्वारा संचालित होता है। पराहं आदर्शों तथा नैतिकताओं का भंडार होता है तथा बच्चों के समाजीकरण (socialization) में यह प्रमुख भूमिका निभाता है। पराई पूर्णतः चेतन होता है।
फ्रायड द्वारा प्रतिपादित उपाह (id), अहं (ego) तथा पराहं ( superego) के संप्रत्ययों (concepts) द्वारा बालकों के व्यक्तित्व को समझने में काफी मदद मिली है। जब किसी बालक में उपाह, अहं तथा पराहे सामान्य ढंग से समन्वित होकर कार्य करते हैं तो उस बालक का व्यक्तित्व सामान्य समझा जाता है तथा वे सामान्य योग्यता के बालक समझे जाते हैं। परंतु, यदि इन तीनों पहलुओं में किसी प्रकार संघर्ष (conflict) होता है तो इससे बालक के व्यक्तित्व में विघटन (disorganization) उत्पन्न होने की संभावना अधिक हो जाती है तथा बालक का व्यवहार कुसमायोजित (maladjusted) हो जाता है।
(3) दुश्चिता एवं मनोरचनाएँ (Anxiety and Mental Mechanisms)
– फ्रायड के अनुसार, दुश्चिता एक दुखद अवस्था (unpleasant state) है जो व्यक्ति को आनेवाले खतरों (dangers) से आगाह करता है। इन्होंने दुश्चिता के तीन प्रकार बताया- वास्तविक दुश्चिता (realistic anxiety), तंत्रिकातापी दुश्चिता (neurotic anxiety) तथा नैतिकता संबंधी दुश्चिता (moral anxiety)। बाह्य वातावरण (external environment) में मौजूद खतरों जैसे आग, सॉप, भूकंप आदि से जब व्यक्ति में चिंता उत्पन्न होती है, तो उसे वास्तविक दुश्चिता (realistic anxiety) या •वस्तुनिष्ठ दुश्चिता (objective anxiety) कहा जाता है। तंत्रिकातापी दुश्चिता में व्यक्ति को उपाह प्रवृत्तियों (id impulses) से खतरा उत्पन्न हो जाता है तथा नैतिकता संबंधी दुश्चिता (moral (anxiety) में अहं को पराई (superego) से दंडित किए जाने की धमकी मिलती है। ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति में आत्मदोष (self-condemnation), लज्जा (shame) आदि जैसी मानसिक स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इन चिंताओं से बचने के लिए व्यक्ति विभिन्न तरह की मनोरचनाओं (mental (mechanisms) का सहारा लेता है। इन मनोरचनाओं में दमन (repression), युक्त्याभास (rationalisation), प्रतिगमन (regression). प्रतिक्रिया निर्माण (reaction-formation) प्रक्षेपण (projection). आत्मीकरण (identification) विस्थापन (displacement) आदि मुख्य हैं।
फ्रायड के इस योगदान का भी प्रभाव शिक्षा में काफी पड़ा है। शिक्षा मनोवैज्ञानिकों को इससे समस्या बालकों (problem children) के कारणों तथा वैसे बच्चे, जिनमें स्कूलदुर्भीति (school phobia) पाया जाता है, के व्यवहारों को समझने में मदद मिलती है।
(4) मनोलैंगिक विकास (Psychosexual Development)
– फ्रायड (Freud ) के अनुसार, मानव के व्यक्तित्व विकास का एक बहुत बड़ा निर्धारक लैंगिक मूल प्रवृत्ति (sexual instinct) है जिसके शक्ति-बल को उन्होंने लिविडो (libido) कहा। लिबिडो एक ऐसी मानसिक शक्ति (psychic strength) है जो पूर्णतः लैंगिक क्रियाओं (sexual activities) द्वारा अपनी संतुष्टि चाहता है। फ्रायड ने मनोलैंगिक विकास की पाँच अवस्थाएँ बताए हैं और इनकी विशेषता यह है कि प्रत्येक अवस्था में कुछ खास-खास अनुभूतियाँ उत्पन्न होती हैं जो व्यक्ति के व्यक्तित्व में विशेष शीलगुण (traits), मनोवृत्ति (attitudes) तथा मूल्य (values) उत्पन्न करती हैं।
ये पाँच अवस्थाएँ निम्नांकित हैं
(i) मुखावस्था (Oral Stage)
– यह अवस्था जन्म के समय से करीब-करीब 1 साल की उम्र तक चलती रहती है। इस अवस्था में शिशु मुँह की क्रियाओं द्वारा लैगिक सुख (sexual satisfaction) प्राप्त करता है। यही कारण है कि इस अवस्था में शिशु स्तनपान (breast sucking) द्वारा सर्वाधिक यौन आनंद प्राप्त करता है। 1 साल की उम्र होने पर शिशु को जब स्तनपान बंद कर दिया (wearming) जाता है, तब यह अवस्था समाप्त हो जाती है। इस अवस्था के प्रथम 6 महीनों में जब शिशुओं को अत्यधिक उत्तेजना (stimulation) या अपर्याप्त उत्तेजना (insufficient stimulation) मिलती है तो वयस्कता (adulthood) आने पर ऐसे बच्चों में निष्क्रियता (passivity), अपरिपक्वता (immaturity) तथा अत्यधिक निर्भरता (excessive dependence) जैसे शीलगुण विकसित होते हैं। इस अवस्था के अंतिम 6 महीनों में अत्यधिक उत्तेजना या अपर्याप्त उत्तेजना मिलने से वयस्कता आने पर बच्चों में आक्रामकता (aggressiveness), निराशावादी प्रवृत्तियाँ (pessimistic tendencies) की प्रधानता होती है।
(ii) गुदावस्था (Anal Stage)
– यह अवस्था दूसरे तथा तीसरे साल तक चलती रहती है और इस अवस्था में लैंगिक क्षेत्र (sexual region) मुँह से हटकर गुदा (anal) हो जाता है। इस अवस्था को भी दो भागों में बाँटा गया है- गुदा-निष्कासन अवस्था (anus expulsion stage) तथा गुदा-धारणात्मक अवस्था (anal retentive stage)। पहली अवस्था में शिशुओं को मल-मूत्र का परित्याग करने में • लैंगिक सुख की प्राप्ति होती है तथा दूसरी अवस्था में मल-मूत्र को रोककर रखने में उसे लैंगिक सुख (sexual pleasure) मिलता है। जिन बच्चों में पहली अवस्था से उत्पन्न अनुभूतियों की प्रधानता होती है, उनमें आक्रामकता (oggressiveness), क्रूरता (cruelty), विनाशिता (destructiveness) आदि गुण वयस्क होने पर अधिक पाए जाते हैं, परंतु दूसरी अवस्था से उत्पन्न अनुभुतियों की प्रधानता होने पर उनमें समयनिष्ठता (punctuality) हठ (obstinancy), कंजूसी (stinginess) जैसे शीलगुण पाए जाते है।
(iii) लिंग-प्रधानावस्था (Phallic Stage)
– यह अवस्था चौथे से पाँचवे साल में पाई जाती है। इस अवस्था में बालकों की यौन अभिरुचियाँ (sex interests) गुदा क्षेत्र (anal region) से हटकर यौन अंगों (sexual organs) में स्थापित हो जाती है। बच्चे यौन अंगों को छूने तथा उनसे कौतुहल करने में काफी आनंद लेते हैं। इस अवस्था से उत्पन्न अनुभूतियों की प्रधानता होने से बच्चों में वयस्क होने पर इश्कबाजी (flirtatiousness). सम्मोहकता (seductiveness) तथा स्वच्छंदसंभोगिता (prosmiscuity) आदि शीलगुण विकसित हो जाते हैं।
(iv) अव्यक्त अवस्था या निलीनावस्था (Latency Stage)
– यह 6 या 7 साल की उम्र से प्रारंभ होकर लगभग 12 वर्ष की उम्र तक रहती है। इस अवस्था में बच्चों में कोई नया कामुकता क्षेत्र (erogeneous zone) नहीं विकसित होता है तथा साथ-ही-साथ लैंगिक इच्छाएँ (sexual wishes) सुषुप्त (dormant) रहती है। इस अवस्था में बच्चे अपनी लैंगिक इच्छाओं को अनैतिक समझकर उसका दमन कर देते हैं तथा अन्य बाहरी चीजों एवं घटनाओं में अधिक रुचि दिखाना प्रारंभ कर देते हैं। इस तरह उनमें बहिर्मुखी (extrovert) अभिरुचि अधिक बढ़ जाती है।
(v) जननेन्द्रियावस्था (Genital Stage)
-मनोलैगिक विकास की यह अंतिम अवस्था है जो 13 वर्ष की आयु से प्रारंभ होकर निरंतर चलती रहती है। इस अवस्था में किशोरावस्था (adolescence) तथा वयस्कावस्था (adulthood) दोनों शामिल होते हैं। इस अवस्था के आरंभ होते ही किशोरों एवं किशोरियों में अनेक तरह के शारीरिक परिवर्तन होते हैं तथा ग्रंथीय विकास (glandular development) परिपक्व हो जाते है। इस अवस्था के प्रारंभ में समलिंगकामुकता (homosexuality) पाई जाती है, परंतु 20-22 वर्ष की अवस्था आ जाने पर विषमलिंगकामुकता (heterosexuality) देखने को मिलती है।
फ्रायड ने इन पाँच अवस्थाओं में तीन अवस्थाओं को अर्थात जीवन के प्रथम पाँच साल को काफी महत्त्वपूर्ण बताया है, क्योंकि वयस्क व्यक्तित्व (adult personality) की नींव इसी में डाली जाती है। मनोविश्लेषण (psychoanalysis) के उपर्युक्त कथन (statement) से शिक्षा एवं शिक्षा मनोविज्ञान को बहुत फायदा हुआ है। शायद यही कारण है कि एक शिक्षा मनोवैज्ञानिक बालकों के प्रथम पाँच साल की अवधि में स्कूल में किए जानेवाले अंत क्रियाओं (interactions) पर बारीकी से ध्यान देते हैं ताकि आगे चलकर ऐसे बालकों का वातावरण के साथ समायोजन ठीक बना रहे।
इस तरह हम देखते हैं कि मनोविश्लेषण का भी योगदान शिक्षा में काफी महत्त्वपूर्ण है। बालको की समस्याओं (problems) तथा मानसिक संघर्षों को समझने में इस स्कूल ने शिक्षकों एवं शिक्षा मनोवैज्ञानिकों को काफी मदद की है।
महत्वपूर्ण लिंक
Concept of Health | स्वास्थ्य की अवधारणा
Principles of Motor Development | क्रियात्मक विकास के नियम