Contribution of Behaviourism in Education | व्यवहारवाद का शिक्षा में योगदान

Contribution of Behaviourism in Education | व्यवहारवाद का शिक्षा में योगदान

 

Contribution of Behaviourism in Education :- व्यहारवाद (Behaviourism) की स्थापना जे० बी० वाटसन (J B Watson, 1878-1958) द्वारा 1913 में जॉन हापकिन्स विश्वविद्यालय में की गई, जहाँ वे मनोविज्ञान विभाग के अध्यक्ष थे। इस स्कूल की स्थापना संरचनावाद (Structuralism) तथा कार्यवाद (Functionalism) जैसे संप्रदायों (systems) के विरोध में वाटसन (Watson) द्वारा की गई। यह स्कूल अपने काल में, विशेषकर 1920 के बाद काफी अधिक प्रभुत्वशाली (dominant) रहा जिसके कारण इसे मनोविज्ञान में ‘द्वितीय बल’ (Second force) के रूप में मान्यता मिली। ‘प्रथम बल’ (First force) की मान्यता मनोविश्लेषण (Psychoanalysis) जैसे संप्रदाय को दी गई थी।

वाटसन के व्यवहारवाद के दो उपक्रम थे-

प्राथमिक उपक्रम (primary subsystem) तथा गौण उपक्रम (secondary subsystem) ।

वाटसन के प्राथमिक उपक्रम के दो पहलू थे

– धनात्मक पहलू (positive aspect) तथा ऋणात्मक पहलू (negative aspect)।

धनात्मक पहलू के रूप में वाटसन ने वस्तुनिष्ठ मनोविज्ञान (Objective Psychology) पर अधिक बल डाला। उन्होंने मनोविज्ञान को मानव व्यवहार तथा पशुव्यवहार के अध्ययन का विज्ञान बताया। उन्हें मनोविज्ञान को चेतन अनुभूतियों का विज्ञान कहना कतई पसंद नहीं था। उन्होंने व्यवहार के अध्ययन की विधि के रूप में प्रेक्षण (observation) तथा अनुबंधन (conditioning) को महत्त्वपूर्ण माना। उन्होंने सीखना (learning), संवेग (emotion) तथा स्मृति ( memory) के क्षेत्र में कुछ प्रयोगात्मक अध्ययन किए जिसकी उपयोगिता एवं मान्यता आज भी शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में अधिक है। व्यवहारवाद के इस धनात्मक पहलू को आनुभविक व्यवहारवाद (Empirical behaviourism) या वर्गीकृत व्यवहारवाद (Methodological behaviourism) कहा जाता है। वाटसन के व्यवहारवाद का ऋणात्मक पहलू (negative aspect) का उद्देश्य वुंट (Wundt) तथा टिचेनर के संरचनावाद को तथा एंजिल के प्रकार्यवाद (functionalism) को अस्वीकृत करना था। 1919 में वाटसन ने अपने व्यवहारवाद की तात्त्विक स्थिति (metaphysical position) को स्पष्ट किया जिसमें चेतना (consciousness) या मन (mind) के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया गया। इसे तात्त्विक व्यवहारवाद (Metaphysical behaviourism) या आमूल व्यवहारवाद (Radical behaviourism) कहा गया।

वाटसन ने सीखना (learning), भाषा विकास (language development) चिंतन (thinking), स्मृति (memory) तथा संवेग (emotion) के क्षेत्र में जो अध्ययन किया वह विशेष रूप से शिक्षा मनोविज्ञान के लिए काफी महत्त्वपूर्ण है। वाटसन ने यह स्पष्ट रूप से बताया कि सभी तरह की आदतें दो तरह के नियमों (principles) द्वारा सीखी जा सकती हैं- -बारंबारता का नियम (principles of frequency) तथा अभिनवता का नियम (principle of recency)। बाद में उन्होंने सीखना के लिए अनुबंधन (conditioning) के नियम (principle) को भी महत्त्वपूर्ण बताया। उन्होंने रेनर (Raynor) के साथ 1920 में अलबर्ट (Albert) नाम के एक बच्चे पर प्रयोग कर यह दिखा दिया कि बच्चा अनुबंधन द्वारा डर जैसे संवेग को दिखाना सीख लेता है। वाटसन के अनुसार भाषा का विकास एक ऐसी सीखी गई प्रक्रिया होती है जो बच्चों के यादृच्छिक कंठ-साधना (random vocalization) तथा बा-बा करने की प्रक्रिया (babblings) से उत्पन्न होती है। वाटसन के इन शोधों से शिक्षा मनोविज्ञान में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ और शिक्षा मनोविज्ञानी भाषा विकास (language development) तथा संप्रत्यय विकास (concept development) के क्षेत्र में नए ढंग से प्रयोग करने लगे। वाटसन ने चिंतन (thinking) के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण कार्य किया वाटसन के अनुसार चिंतन की प्रक्रिया में बच्चे अपने-आपसे बातचीत करते पाए जाते है। चिंतन करते समय वागीन्द्रियाँ (vocal organs) में पेशीय संकुचन (muscular contractions) होते है। उन्होंने चिंतन में अन्य दूसरे अंगों, जैसे अंगुलियों की पेशियों में गति (movement) आदि होने का दावा किया जिसकी बाद में जैकोबसन (Jacobson, 1932) तथा मैक्स (Max, 1937) ने अपने-अपने प्रयोगों से पुष्टि भी की है। स्मृति (memory) की व्याख्या करते हुए वाटसन ने कहा कि इसमें तीन उपप्रक्रियाएँ सम्मिलित होती है- पहली, किसी आदत या कौशल को पहले व्यक्ति सीखता है। दूसरी जब इन सीखे गए आदत या कौशल का अभ्यास (practice) नहीं होता, तो व्यक्ति उसे भूल जाता है। तीसरा, व्यक्ति दिए गए पाठ को पुनः प्रयास करके फिर से सीख सकता है। जब व्यक्ति पहले के सीखे गए पाठ का प्रत्याह्नान करने में असमर्थ रहता है, तब इसका मतलब यह हुआ कि मूल सीखना (original learning) के दौरान जो पेशीय तंत्र (major systems) विकसित हुए थे, वे टूट गए। वाटसन ने पर्यावरणी कारको (environmental factors) को बच्चों के व्यक्तित्व विकास (personality development) में काफी महत्त्वपूर्ण बताया। इसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षा मनोवैज्ञानिको द्वारा पर्यावरणी कारको पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा, क्योंकि इससे बच्चों के व्यक्तित्व का उचित विकास संभव था। वाटसन द्वारा पर्यावरणी कारकों पर इतना अधिक जोर डाला गया उन्होंने स्पष्ट रूप से यह दावा किया कि यदि उन्हें एक दर्जन भी स्वस्थ बच्चे दिए जाते हैं, तो बच्चे की क्षमता, प्रजाति (race), योग्यता (talents) आदि पर बिना ध्यान दिए ही वे उन्हें चाहे तो डॉक्टर, इंजीनियर, कलाकार या भिखारी कुछ भी उचित वातावरण प्रदान कर बना सकते हैं। वाटसन के इस विचार को पर्यावरणवाद (environmentalism) की संज्ञा दी गई तथा उन्होंने इसके आधार पर एक विशेष कार्यक्रम (programme) चलाया जिसे पर्यावरणी नीतिशास्त्र (environmental ethics) कहा गया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य वयस्क के व्यक्तित्व संबंधी दोषो को उचित वातावरण प्रदान कर उसे पुनर्शिक्षा (re-education) देना तथा सुधार (rehabilitation) करना था।

वाटसन के अलावा कुछ अन्य व्यवहारवादी भी हैं जिनका योगदान शिक्षा और शिक्षा मनोविज्ञान के लिए विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनमें ई आर गथरी (ER Guthrie, 1886-1959), सी. एल. हल (CL Hull 1884-1952) तथा बी एफ० स्कीन्नर (B F Skinner, 1904-1990) का नाम अधिक लिया जाता है। इन व्यवहारवादियों (behaviourists) को ‘परवर्ती व्यवहारवादी’ (later behaviourist) कहा जाता है। गथरी (Guthrie) ने अन्य बातों के अलावा यह बताया कि सीखने के लिए प्रयास (practice) की जरूरत नहीं होती और व्यक्ति एक ही प्रयास में सीख लेता है। इसे उन्होंने इकहरा प्रयास सीखना (single-trial learning) की संज्ञा दी। अन्य मनोवैज्ञानिकों को यह बात थोड़ी अटपटी-सी लगी। गथरी ने इसकी व्याख्या आगे करते हुए कहा कि व्यक्ति किसी सरल अनुक्रिया (simple response) जैसे पेंसिल पकड़ना, माचिस जलाना आदि एक ही प्रयास में सीख लेता है। इसके लिए उसे किसी अभ्यास की जरूरत नहीं होती है। परंतु, जब कोई जटिल कार्य (complex act) जैसे लिखना, साइकिल चलाना आदि सीखता है, तो इसमें अभ्यास की जरूरत पड़ती है। गथरी के इस विचार का प्रभाव शिक्षा मनोविज्ञान पर सीधा पड़ा और उसी ढंग से मनोवैज्ञानिक बच्चों साधारण तथा सरल पाठ को सीखने के लिए अभ्यास उतना बल डालने सिफारिश तथा जटिल पाठ (complex को सीखने पर अधिक-से-अधिक अभ्यास बल डाला। इससे शिक्षा क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। गधरी ने एक विशेष तथ्य पर प्रकाश डाला शिक्षा के लिए काफी लाभप्रद साबित हुआ और वह था आदतों से छुटकारा पाया जाए। इसके लिए गथरी ने निम्नांकित तीन विधियों (three methods) प्रतिपादन किया

(i) सीमा विधि (Threshold method)

(ii) थकान विधि (Method fatigue)

(iii) परस्परविरोधी उद्दीपन विधि (Method of incompatible stimuli)

इन तीनों विधियों की उपयोगिता शिक्षा मनोविज्ञान के लिए काफी अधिक बताई गई है, जो निम्नांकित हैं

(i) सीमा या देहली विधि (Threshold method)

 

— इस विधि में अवांछनीय अनुक्रिया (undesirable response) उत्पन्न करनेवाले उद्दीपन की तीव्रता (intensity) की देहली (threshold) से नीचे करके व्यक्ति के सामने उपस्थित किया जाता है। स्वाभाविक है कि इससे व्यक्ति प्रारंभ में कोई अनुक्रिया नहीं करेगा। जब उद्दीपन की तीव्रता देहली से ऊपर हो जाती है, तो भी व्यक्ति उसके प्रति कोई अनुक्रिया नहीं कर पाता है, क्योंकि तब तक उसमें उस उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया न करने की नई आदत सी बन जाती है। इस विधि का शिक्षा मनोविज्ञान में काफी स्वागत किया गया है। शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने इस विधि का प्रयोग कर बच्चों में डर (fear), क्रोध आदि जैसी संवेगात्मक अनुक्रिया (emotional response) को कम करने में अच्छी सफलता प्राप्त की।

(ii) थकान विधि (Method of fatigue)

 

–इस विधि में बालकों को बुरी आदतों या अवांछनीय अनुक्रिया (undesirable response) को दूर करने के लिए बालक से उस अनुक्रिया को बार-बार तब तक कराया जाता है जब तक कि वह थक न जाए। स्वाभाविक है कि थक जाने पर उसमें उस अनुक्रिया को पुनः न करने की इच्छा उत्पन्न हो जाएगी और इस तरह से बालक की बुरी आदत समाप्त हो जाएगी। इस विधि का भी शिक्षा मनोवैज्ञानिकों द्वारा काफी स्वागत किया गया और बालक की अवांछनीय आदतों को दूर करने में सफलतापूर्वक प्रयोग किया गया।

(iii) परस्परविरोधी उद्दीपन की विधि (Method of incompatible stimuli)

 

-इस विधि में अवांछित अनुक्रिया (unwanted response) उत्पन्न करनेवाले उद्दीपन (stimulus) को अन्य उद्दीपन (stimulus) जो अवांछित अनुक्रिया की विरोधी अनुक्रिया उत्पन्न कर सकता है, के साथ व्यक्ति के सामने बार-बार दिया जाता है। कुछ प्रयासों (trials) के बाद परिणाम यह होता है कि मूल उद्दीपन (जिससे अवांछित अनुक्रिया उत्पन्न होती थी) अब नई अनुक्रिया (यानी अवांछित अनुक्रिया की विरोधी अनुक्रिया अर्थात वांछित अनुक्रिया) के साथ संबंधित हो जाती है और इस तरह से व्यक्ति में अवांछित अनुक्रिया (undesired response) अपने-आप कम हो जाती है। गथरी (Guthrie) इस विधि का प्रयोग एक कॉलेज की छात्रा, जो ध्यानभंग करनेवाला आवाज (distracting noise) के कारण पाठ्य पुस्तकों (textbooks) का अध्ययन नहीं कर पाती थी, पर सफलतापूर्वक किया। छात्रा ने इस तरह की आवाज में पाठ्य पुस्तक को छोड़कर मनोरंजक उपन्यास पढ़ना प्रारंभ कर दिया और इस प्रक्रिया को कई दिनों तक दुहराया गया। धीरे-धीरे उस छात्रा में आवाज के बीच बिना किसी तरह की ध्यानभंगता (distraction) का अनुभव किए ही पढ़ने की आदत बन गई। बाद में फिर वह अपनी पाठ्य पुस्तक को उस तरह के आवाज के बीच भी बिना किसी तरह की ध्यानभंगता का अनुभव किए ही पढ़ने में सफल हो गई। शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने, विशेषकर स्वार्ज (Schwartz, 1977) तथा रिली एवं लेविस (Reilly & Lewis, 1983) ने इस विधि को शिक्षा मनोविज्ञान तथा शिक्षा के क्षेत्र में एक अनुपम देन माना है।

स्कीचर (Skinner) ने, जो एक प्रमुख परवर्ती व्यवहारवादी (Jater behaviourist) हैं, शिक्षा एवं शिक्षा मनोविज्ञान में असमानांतर (unparallel) योगदान किया है। इनके योगदानों ने शिक्षा के क्षेत्र में एक नया अध्याय प्रारंभ किया है। स्कीन्नर का प्रोग्राम सीखना (programmed learning) तथा भाषा विकास का सिद्धांत (theory of language development) ने शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में हलचल मचा दिया। अत इन दोनों पर प्रकाश डालना आवश्यक है

(1) प्रोग्राम या कार्यक्रमित सीखना (Programmed learning)

 

– स्किन्नर (Skinner) वर्ग में शिक्षक द्वारा अध्यापन किए जाने की पौराणिक विधि (traditional method), जो मूलत: भाषण (lecture) के माध्यम से होता था, काफी असंतुष्ट थे, क्योंकि इस विधि में सभी शिक्षार्थी को सीखने का मौका समान नहीं मिल पाता था। तेज बुद्धि के शिक्षार्थी जल्द सीख लेते थे, परंतु औसत तथा मंद बुद्धि के शिक्षार्थी काफी पीछे रह जाते थे। इसे दूर करने के उद्देश्य से स्किन्नर ने प्रोग्राम सीखना विधि का प्रतिपादन किया। इस विधि में सीखे जानेवाले पाठ को कई छोटे-छोटे भागों या एकांशों (items) में बाँट दिया जाता है। ऐसे भाग को फ्रेम (frame) कहा जाता है। प्रत्येक फ्रेम को शिक्षार्थी के सामने एक-एक करके उपस्थित किया जाता है। शिक्षार्थी को उसका उत्तर लिखना होता है। इसके बाद अध्यापन मशीन (teaching machine) के माध्यम से उस फ्रेम का उत्तर दिखा दिया जाता है। यदि शिक्षार्थी द्वारा लिखा गया उत्तर सही हुआ तो यह एक पुनर्बलन (reinforcement) का कार्य करता है और उसे शिक्षार्थी सीख लेता है। यदि उत्तर गलत हो जाता है तो भी उसे सही उत्तर जानने का एक मौका मिलता है जिसका लाभ उठाकर वह भविष्य में पुनर्बलन पाने की कोशिश करता है। इस तरह से एक-एक करके वह प्रोग्राम के सभी फ्रेमों के सही उत्तर को सीख लेता है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि इसमें शिक्षार्थी दिए हुए पाठ को अपनी गति (pace) से छोटे-छोटे खंडों में सीखते हैं। इस तरह से स्पष्ट है कि स्किन्नर का प्रोग्राम सीखना में सतत पुनर्बलन (continuous reinforcement) की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। आधुनिक शिक्षा मनोवैज्ञानिक इसे एक अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण अध्यापन विधि मानते है और अनेक तरह के पाठों को सिखाने में उन्हें सफलता भी मिल चुकी है।

(2) भाषा विकास का सिद्धांत (Theory of language development)

 

– शिक्षा मनोविज्ञान के लिए स्किन्चर (Skinner) की एक अनुपम देन भाषा विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन किया जाना है। उन्होंने यह बताया कि बच्चों में भाषा विकास अनुकरण (imitation) तथा पुनर्बलन (reinforcement) के कारण होता है। बच्चे वयस्क के समान बोलने का अनुकरण करते हैं और अपने प्रयास में सफल होने पर वयस्क उनकी तारीफ तथा प्रशंसा करते हैं जो एक तरह का पुनर्बलन का काम करता है। इसके परिणामस्वरूप बच्चे उस शब्द या वाक्य को बार-बार दुहराते हैं और वे धीरे-धीरे उसे सीख लेते हैं। शिक्षा मनोवैज्ञानिकों को स्किन्नर द्वारा प्रतिपादित भाषा विकास के इस सिद्धांत द्वारा बालको के भाषा विकास में हुई विभिन्नता की सहज ढंग से व्याख्या करने में काफी सफलता प्राप्त हुई है। इस तरह स्पष्ट है कि व्यवहारवाद का योगदान शिक्षा एवं शिक्षा मनोविज्ञान में अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण रहा है।

महत्वपूर्ण लिंक

Concept of Health | स्वास्थ्य की अवधारणा

Principles of Motor Development | क्रियात्मक विकास के नियम

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