सामाजिक विकास का अर्थ- सामाजिक विकास /Social Development से अभिप्राय उस प्रक्रिया विशेष से है जिसके फलस्वरूप एक बालक अपने सामाजिक वातावरण के साथ लगातार अतक्रिया करते हुए सामाजिक गुणों एवं कुशलताओं को ग्रहण कर उचित सामाजिक संबंध बनाए रखने में सफल रहता है। सामाजिक विकास की प्रक्रिया उसी समय से अपना कार्य प्रारंभ कर देती है जिस समय
एक अबोध शिशु का अपनी मा के परिवार के सदस्यों तथा अन्य व्यक्तियों के साथ कोई संपर्क सूत्र बनाना प्रारंभ हो जाता है और फिर यह कार्य अनवरत रूप से जिंदगी भर चलता रहता है।
सामाजिक विकास | Social Development
सोरसन के अनुसार सामाजिक वृद्धि और विकास से हमारा तात्पर्य अपने साथ और दूसरों के साथ भलीभाती चले चलने की बढ़ती हुई योग्यता से हैं। फीमैन एड शोवल के शब्दों में सामाजिक विकास सीखने की वह प्रक्रिया है जो समूह के स्तर परपराओं तथा
रीति रिवाजों के अनुकूल अपने आप को ढालने तथा एकता मेल जोल और पारस्परिक सहयोग की भावना भरने में सहायक होती है।
अतः सामाजिक वृद्धि और विकास यह प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक व्यक्ति अपने समूह विशेष में अपना ठीक प्रकार से समायोजन करने के लिए सभी प्रकार के आवश्यक ज्ञान कौशल और अभिवृत्तियों को अर्जित कर पाता है। इसके फल स्वरूप समूह के प्रति भक्ति भाव और आस्था को जन्म मिलता है और पारस्परिक निर्भरता सहयोग और एकता के बंधन मजबूत होते हैं।
विकास की विभिन्न अवस्थाओं में सामाजिक विकास
एक व्यक्ति के शैक्षणिक जीवन में सामाजिक विकास बहुत अधिक आवश्यक है। यह विकास विभिन्न अवस्थाओं जैसे शैशवावस्था बाल्यावस्था और किशोरावस्था में भिन्न भिन्न प्रकार से होता है। इन अवस्थाओं में सामाजिक विकास का वर्णन नीचे की पंक्तियों में किया जा रहा है।
(क) शैशवावस्था में सामाजिक विकास
बच्चों के सामाजिक व्यवहार का अध्ययन करने पर पता चलता है कि उनका प्रारंभिक व्यवहार बहुत ही स्वार्थ और अहम से भरा हुआ है। वह अपने खिलौने दूसरों के साथ बांटना नहीं चाहते। लेकिन 3 वर्ष का बच्चा अपने पास जो कुछ है उसमें से दूसरों
को बांटना या मिलजुल कर खेलना खाना आदि सीख लेता है वह सामाजिक और संगठित खेलों में रुचि लेने लगता है। छह वर्ष की आयु तक बालक और बालिकाएं बिना किसी लैगिक भेदभाव के एक दूसरे के साथ मिलकर खेलते रहते हैं। सामाजिक व्यवहार की प्रारंभिक अवस्थाओं में शिशुओं में नकारात्मक सामाजिक गुणों का समावेश पाया जाता है। प्रथम दो वर्षों में अनुकरण, दब्बूपन लज्जाशीलता प्रतिद्वदता इष्र्ष्या और संग्रह संबंधी लालच ये सभी प्रवृत्तिया हावी रहती है। धीरे-धीरे सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही प्रकार के सामाजिक गुणों का प्रभाव इस उम्र के बच्चों में अच्छी तरह देखा जा सकता है।
(ख) बाल्यावस्था में सामाजिक विकास
बाल्यावस्था में प्रवेश करने के साथ-साथ अधिकाश बच्चे विद्यालय में जाना प्रारंभ कर देते हैं। अब उनका सामाजिक दायरा बहुत विस्तृत हो जाता है। इस अवस्था में बालकों में सामाजिक चेतना का यथेष्ट विकास हो जाता है। दूसरों के साथ समायोजन के
लिए आवश्यक सामाजिक गुण भी उनमें पनपने लगते हैं। वह अपने माता पिता तथा अन्य बड़ों की छत्रछाया से निकलकर अपनी आयु के बच्चों के साथ खेलना अधिक पसंद करता है। इस उम्र के बच्चे अपनी अवस्था के बच्चों के साथ एक गिरोह बना लेते हैं।
इसके आदर्श और मान्यताएं उनके लिए बहुत ही प्रिय होते हैं तथा वह हर प्रकार से इस गिरोह में अपना एक गौरवपूर्ण स्थान बनाना चाहता है। इस आयु में बालक और बालिकाओं में एक दूसरे से अलग अलग रहने की प्रवृत्ति पाई जाती है। आदतों रुचियाऔर अभिरुचि में पर्याप्त अंतर होने के कारण दोनों ही अपने अलग-अलग समूह बनाकर खेलना कूदना पसंद करते हैं।
(ग) किशोरावस्था में सामाजिक विकास
किशोरावस्था तीव्र परिवर्तन और समायोजन की अवस्था है। सामाजिक विकास के दृष्टिकोण से इस अवस्था के बच्चों में बहुत कुछ परिवर्तन और विशेषताए दिखाई पड़ती है। किशोरावस्था में लिंग संबंधी चेतना तीव्र हो जाती है जिसके फलस्वरूप लड़के और लड़किया एक दूसरे के प्रति आकर्षण का अनुभव करते हैं। वे श्रृंगार के अलग-अलग तरीके इस्तेमाल कर के विपरीत लिंग के सदस्यों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करते दिखलाई पड़ते हैं। उनके मन में एक दूसरे के निकट आने मित्र बनाने से यहां तक कि यौन संबंध स्थापित करने की लालसा भी उत्पन्न होने लगती हैं। इस आयु के अधिकतर किशोर और किशोरिया अपने वय समूह के सक्रिय सदस्य होते हैं। वह अपने समूह के लिए हर प्रकार का त्याग करने के लिए तैयार रहते हैं। समूह के प्रति श्रद्धा के कारण प्रायः उनका उनके माता पिता या गुरुजनों के साथ संघर्ष भी रहता है। सहानुभूति, सहयोग सदभावना परोपकार और त्याग का अदभुद सामंजस्य इस अवस्था में देखने को मिलता है। किशोरावस्था में मैत्री संबंधों में भी अत्याधिक वृद्धि दिखलाई पड़ती है। किशोरावस्था अत्याधिक सामाजिक चेतना बढ़ते हुए सामाजिक संबंधों और प्रगाढ मित्रता
की अवस्था है। इस अवस्था में व्यक्ति को सामाजिक समायोजन तथा सामाजिक गुणों का अर्जन करने के लिए पर्याप्त अवसर तथा रुचियों एवं अभिरुचियों का विशाल क्षेत्र मिलता है। इस अवस्था के दौरान व्यक्ति अपने आप को अपने सामाजिक जीवन में एक उत्तरदायित्व पूर्ण व्यरक व्यक्ति की भूमिका निभाने के लिए पूरी तरह तैयार करता है। इस अवस्था के अंत तक प्राय बालक सामाजिक रूप से परिपक्व हो जाता है।
सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक
एक व्यक्ति के सामाजिक विकास और वृद्धि को प्रभावित करने वाले कई कारक है। से कुछ व्यक्तिगत है और कुछ वातावरण से संबंधित इन कारकों की विस्तृत जानकारी नीचे दी जा रही है।
(1) शारीरिक ढांचा और स्वास्थ्य
एक स्वस्थ और सामान्य डील डौल वाले बच्चे में आत्मविश्वास होता है और यह आत्म गौरव से युक्त होता है। उसमें कठिन परिस्थितियों को समायोजित करने की पूरी योग्यता और क्षमता होती है। वह सहयोगी प्रवृत्ति का होता है तथा हर अवस्था में खुश रहने का प्रयत्न करता है। इसके विपरीत एक बीमार शक्तिहीन अथवा किसी प्रकार के शारीरिक दोषों से ग्रस्त बच्चा हीन भावना का शिकार होने के कारण अपने सामाजिक समायोजन में कठिनाई अनुभव करता है।
(2) बुद्धि
बुद्धि की परिभाषा उचित समय पर उचित निर्णय लेने और नवीन परिस्थितियों में ठीक प्रकार अपना समायोजन कर सकने की योग्यता और क्षमता के रूप में दी जाती है। अंत बौद्धिक विकास का सामाजिक विकास से बहुत निकट का संबंध है। कोई व्यक्ति
जितना अधिक बुद्धिमान होता है वह उतना ही सफलता पूर्वक सामाजिक परिवेश में अपने आप को समायोजित कर अधिक सामाजिक सिद्ध होता है।
(3) संवेगात्मक विकास
व्यक्ति के संवेगात्मक और सामाजिक विकास में भी धनात्मक सह संबंध पाया जाता है। जो व्यक्ति अपने सवेगों को समय का विचार करते हुए ठीक मात्रा में व्यक्त करने की क्षमता रखते हैं वह सामाजिक रूप से अधिक स्वस्थ एवं कुशल पाए जाते है। इसके विपरीत संवेगात्मक रूप से जिन व्यक्तियों का समायोजन ठीक प्रकार नहीं हो पाता यह सामाजिक बुराइयों और दोषों से ग्रस्त रहते हैं।
(4) परिवार का वातावरण
बच्चों के समाजीकरण में परिवार सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बच्चा अपने माता पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों से सामाजिकता का प्रारंभिक पाठ पढ़ता है। शुरू-शुरू में बच्चे अपने माता पिता को देखकर ही सामाजिक व्यवहार सीखते हैं। ऐसे परिवार जहां बच्चों को स्वस्थ सामाजिक वातावरण मिलता है वहां सामाजिक रूप से स्वस्थ एवं सतुलित बच्चों का जन्म होता है। लेकिन ऐसे घरों में जहां पारिवारिक संबंधों में कटुता और खिचाव पाया जाता है तथा परिवार के बड़े लोगों में सामाजिक कुसंस्कार और बुराइया व्याप्त होती है वहीं के बच्चों में भी अवांछित सामाजिक बुराइयों और दोष घर कर लेते हैं। इसलिए बेहतर सामाजिक व्यक्तियों के निर्माण के लिए परिवार का सामाजिक वातावरण बहुत ही स्वस्थ होना चाहिए।
(5) विद्यालय और उसका वातावरण
बच्चों का सामाजिक विकास विद्यालय किस प्रकार करता है और बच्चों को किस प्रकार का सामाजिक परिवेश वहां मिलता है इस बात पर उनका सामाजिक विकास निर्भर करता है। स्वस्थ सामाजिक और प्रजातात्रिक वातावरण से मुक्त विद्यालय विद्यार्थियों में स्वस्थ एवं उपयोगी सामाजिक गुणों का विकास करता है जबकि स्वस्थ एवं सामाजिक बुराइयों से ग्रस्त विद्यालय का वातावरण विद्यार्थियों को समाज का को बना देता है। अत अध्यापक और संबंधित अधिकारियों को बच्चे के उचित सामाजिक विकास के लिए विद्यालय के वातावरण को अधिक से अधिक स्वस्थ एवं प्रेरणादायक बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
(6) मित्र मंडली का प्रभाव
सामाजिकता विकसित करने के दृष्टिकोण से बच्चों के मित्र मडली का बहुत बड़ा महत्व है। संगति का अत्तर पढ़े बिना नहीं रहता। विभिन्न प्रकार के सामाजिक गुणों और अवगुणों को अर्जित करने में मित्र मंडली की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। अत अध्यापक और माता-पिता को बच्चों के मित्रों और साथियों पर नजर रखकर उन्हें बुरी संगति से बचाकर ऊंचे आदर्शों की ओर उन्मुख कर सामाजिक बुराइयों और दोषों से ग्रस्त होने से बचाने का प्रयत्न करना चाहिए।
(7) पास पड़ोस और समुदाय
पड़ोसियों की रुचियों आदतों और गुणों तथा अवगुणों का बच्चे के सामाजिक जीवन पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से गहरा प्रभाव पड़ता है। प्रत्येका समुदाय और समाज में अपने रहन-सहन खाने पीने बोलने चालने और अन्य सांस्कृतिक
क्रियाकलापों को करने का एक विशेष ढंग होता है जिसको बच्चा अनायास ही ग्रहण कर लेता है और वह उसी तरह से व्यवहार करने लगता है।
(8) धार्मिक संस्थाएं और क्लब, इत्यादि
विभिन्न धार्मिक संस्थाएं जैसे मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे गिरजाघर आदि बच्चों के सामाजिक विकास को प्रभावित करते हैं। इस धार्मिक और सामाजिक संस्थानों में जिस तरह का वातावरण होता है और इन संस्थाओं के जो आदर्श परंपराएँ और मान्यताएं होती है उनका व्यक्तियों के सामाजिक व्यवहार को उचित और अनुचित दिशा प्रदान करने में बहुत हाथ होता है।
(9) सूचना और मनोरंजन प्रदान करने वाले साधन
समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं पुस्तकों, रेडियो, सिनेमा, टेलीविजन आदि सूचना और मनोरंजन प्रदान करने वाले साधनों का बच्चे
के सामाजिक विकास के दृष्टिकोण से काफी महत्व है। इन साधनों द्वारा जीवन मूल्यों आदर्शी रहन सहन, खानपान बोलचाल के तरीकों एवं सामाजिक व्यवहार के अन्य पहलुओं में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाने का कार्य निरंतर चलता रहता है। इनके द्वारा किसी भी प्रकार का आवाछनीय प्रभाव बच्चों और युवकों में ना पड़े इस बात का पूरा पूरा ध्यान रखना चाहिए।
सामाजिक विकास में शिक्षा की भूमिका
समुचित वृद्धि और विकास के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान करना एक विद्यालय का महत्वपूर्ण कार्य है। विद्यालय को बच्चों का दूसरा घर कहा गया है। विद्यालयों में समुचित सामाजिक विकास के पर्याप्त अवसर प्रदान किए जाने चाहिए। उन्हें पढ़ाई के
अलावा व्यायाम तथा खेलकूद के भी पर्याप्त अवसर प्रदान किए जाने चाहिए। कहानियों एवं महान व्यक्तित्व के उदाहरण से उन्हें समाज में उचित तरीके से व्यवहार करने की शिक्षा देनी चाहिए। किशोरावस्था में युवक भावनाओं का उत्थान बहुत तीव्र होता है। विद्यालय में मासिक धर्म स्वप्नदोष समलैंगिक और विषम लैंगिक संबंधों के विषय में परिचर्चा आयोजित कर किशोरों को इस विषय के बारे में अवगत किया जा सकता है। जिससे वे भविष्य में गलत आदतों में ना पड़ जाए। विद्यालय में विभिन्न क्रियाओं द्वारा समाज में व्याप्त विभिन्न कुरीतियों के विषय में भी जानकारी दी जा सकती है।