Language Development | भाषा विकास का अर्थ

Meaning of Language Development  भाषा विकास का अर्थ 

Meaning of Language Development में एक नवजात शिशु की सबसे प्रमुख मजबूरी  यह होती है कि वह अपनी इच्छाओं तथा जरूरतों को दूसरों तक भाषा द्वारा नहीं पहुँचा पाता है तथा दूसरों के शब्दों एवं हाव-भाव  को वह ठीक से नहीं समझ पाता है। परंतु, यह मजबूरी बहुत तेजी के साथ प्रारंभिक वर्षों में भाषा विकास  के साथ समाप्त हो जाती है। व्यक्ति में भाषा विकास से तात्पर्य एक ऐसी क्षमता से होता है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने भावों, विचारों तथा इच्छाओं को दूसरे तक सूचित करता है या पहुँचाता है तथा दूसरों के भावों एवं इच्छाओं को ग्रहण करता है। भाषा में कई तरह के संचार  हो सकते हैं, जैसे मौखिक संचार . मुखाकृति संचार , आंगिक संचार , लिखित संचार , कला . मूकाभिनय  आदि। इन सबका उद्देश्य विचारों एवं भावों को दूसरों तक पहुँचाना होता है। भाषा विकास के लिए यह आवश्यक है कि बालक में श्रवण शक्ति अर्थात सुनकर भाषा को समझने की शक्ति विकसित हो तथा उसमें सार्थक ढंग से ध्वनि उत्पन्न कर भाषा बोलने की शक्ति हो।

 

Meaning of Language Development 

Steps of Language Development | भाषा विकास के चरण

 

मनोवैज्ञानिकों ने बालकों के भाषा विकास के चरणों की व्याख्या मोटे तौर पर दो भागों में बाँटकर की है

Steps of Language Development

— प्राक्-भाषा विकास (pre-speech development) की अवस्थाएँ (stages) तथा उत्तरकालीन भाषा- विकास की अवस्थाएँ (stages of later speech development)1

एक सामान्य बालक में प्रथम 15 महीनों की अवस्था को प्राकृ-भाषा अवस्था (pre-speech stage) कहा जाता है। इस अवस्था में बालक अपनी कुछ इच्छाओं एवं आवश्यकताओं को हाव-भाव (gestures) के द्वारा तथा कुछ इच्छाओं एवं आवश्यकताओं को अभिव्यंजक स्पष्टीकरण (expressive vocalisation) के द्वारा अभिव्यक्त करता है। इन सबका अर्थ सिर्फ माता-पिता या वही व्यक्ति समझ पाते हैं जो शिशुओं के सम्पर्क में होते हैं। प्राकृ भाषा की अवस्था में बालक अपनी संचार आवश्यकताओं (communication needs) की अभिव्यक्ति निम्नांकित चार प्रकार (forms) से करता है

(1) रुदन (Crying) –

रुदन नवजात शिशु का सबसे पहला स्पष्टीकरण (vocalisation) है जिसे रिबल (Ribble, 1943) ने आपात श्वसन (emergency respiration) कहा है। रुदन द्वारा बालक अपनी आवश्यकताओं (needs) की जानकारी दूसरों को देते हैं।

(2) विस्फोटक ध्वनियाँ जो बाद में बलवलाना में बदल जाती है (Explosive sounds which soon develop into babbling) –

बलबलाना (babbling) भाषा विकास की दूसरी अवस्था है। प्रथम दो महीनों में शिशु रोने के अलावा कुछ अस्पष्ट ध्वनियाँ भी पैदा करता है। इस समय शिशु स्वर (vowel) ध्वनियों का प्रयोग अधिक करता है। इन ध्वनियों का स्वरूप विस्फोटक (explosive) होता है। इन्हें शिशु अपनी इच्छा से पैदा नहीं करता बल्कि ये स्वर-यंत्रों (vocal mechanisms) को आकस्मिक क्रियाओं (chance movements) द्वारा खुद पैदा होते हैं। चूँकि ऐसी ध्वनियों का प्रयोग शिशु जान-बूझकर नहीं करता और न तो शिशु के लिए उनका कोई अर्थ ही होता है। वे इसका प्रयोग खेलने के रूप में करते हैं जिससे उन्हें काफी मजा मिलता है। इस तरह की ध्वनि को घुटकना (cooing) कहा जाता है। इनमें बहुत सी घुटकनेवाली ध्वनियाँ (cooing sounds) कुछ महीनों के बाद अपने-आप समाप्त हो जाती हैं और कुछ बलबलाना (babbling) में बदल जाता है।

जब शिशु तीन-चार महीने का हो जाता है, तो उसका स्वर-यंत्र (vocal mechanism) इतना परिपक्व (mature) हो जाता है कि वह पहले से अधिक ध्वनियाँ (sounds) उत्पन्न करता है। अब वह स्वर (vowel) तथा व्यंजन (consonant) ध्वनि को एक साथ मिलाकर बोलता है। जैसे– ‘दा’, ‘ना’, ‘वा’, ‘मा’, आदि। जब शिशु सात-आठ महीने का हो जाता है, तब वह इन ध्वनियों को तुरंत-तुरंत दुहराता है जिनको सुनने पर वे अर्थपूर्ण लगते हैं। जैसे- ‘मा-मा’, ‘दा-दा’, ‘ना-ना’ आदि। इसे ही बलबलाना (babbling or lalling) कहा जाता है। सामान्यतः 12 महीनों के बाद बलवलाने की ध्वनियाँ शब्द (words) का रूप ले लेती हैं और तब शिशु बलबलाना बंद कर देता है। काप्लान तथा काप्लान (Kaplan & Kaplan, 1971) के अध्ययनों के अनुसार कुछ बालक दो साल की उम्र तक बलबलाते ही रहते हैं।

कोई भी शिशु कितना बलबलाता है और कितने महीनों तक बलबलाता है, सामान्यतः इस बात पर निर्भर करता है कि उसे माता-पिता या परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा बलबलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है या नहीं। यदि माता-पिता वैसे ही बलबलाकर शिशु को प्राय: कुछ सुनाते रहते हैं तो इससे वे प्रोत्साहित हो जाते हैं और वे जल्दी-जल्दी बलबलाते हैं। इस प्रक्रिया से उनका स्वर-यंत्र (vocal mechanism) इतना मजबूत हो जाता है कि वह तुरंत ही शब्द को बोलना सीख लेता है।

(3) हाव-भाव (Gestures)-

हाव-भाव से तात्पर्य शरीर के अंगों द्वारा की गई वैसी क्रियाओं (movements) से होता है जिससे कुछ अर्थ निकलता है और फलतः वे भाषा के प्रतिस्थापित (substitute) तथा पूरक (supplement) रूप है। भाषा के प्रतिस्थापित रूप (substitute form) में हाव-भाव (gestures) एक तरह से शब्दों का स्थान लेते हैं और इसके द्वारा दूसरों को शिशु कुछ व्यक्त करने की कोशिश करता है। भाषा के पूरक के रूप में बोली गई ध्वनियों ( spoken sounds) में शिशु हाव-भाव द्वारा विशेष अर्थ जोड़ने की कोशिश करता है। हाव-भाव का प्रयोग उस समय तक शिशु करता है जबतक कि वह सही-सही शब्दों का वाक्य के रूप में प्रयोग न कर ले।

(4) सांवेगिक अभिव्यक्ति (Emotional expression)–

मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो जाता है कि सुखद संवेग (pleasant emotion) को शिशु सुखद स्पष्टीकरण (pleasant vocalisation) जैसे घुटकना (cooing), हँसना, अपनी बाँहों को फैलाना आदि द्वारा करता है तथा दुःखद संवेग (unpleasant emotion) को शिशु रुदन (crying) तथा ठुनकना (whimpering) आदि द्वारा व्यक्त करता है। इस तरह सांवेगिक अभिव्यक्ति द्वारा भी शिशु अपनी आवश्यकताओं (needs) एवं इच्छाओं की अभिव्यक्ति करता है। 12-13 महीने के शिशुओं में इस तरह की सांवेगिक अभिव्यक्ति स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। हाव-भाव के समान ही सांवेगिक अभिव्यक्ति का प्रयोग बालको द्वारा पूर्ण शब्दकोश (vocabularies) विकसित होने के बाद भी जारी रहता है।

मनोवैज्ञानिकों ने बालकों में उत्तरकालीन भाषा विकास (later speech development) की पाँच अवस्थाएँ बताई हैं। भाषा विकास हो जाने पर बालक ध्वनियों (sounds) को दूसरों को समझने लायक शब्दों (recognizable words) में व्यक्त करता है तथा उसका सही-सही अर्थ स्वयं भी समझता है। इस तरह से भाषा के दो पहलू (aspects) होते हैं जिसका विकास यहाँ होता है— क्रियात्मक पहलू (motor aspects) तथा मानसिक पहलू (mental aspect) । ध्वनियों को संयोजित कर अर्थपूर्ण शब्द मुँह से निकालना भाषा का क्रियात्मक पहलू (motor aspect) है तथा उन शब्दों का सही-सही अर्थ समझना मानसिक पहलू (mental aspect) है।

इन पाँच अवस्थाओं का वर्णन जिससे होकर शिशुओं में भाषा विकास होता है, निम्नांकित हैं

 

(1) दूसरों की भाषा को समझना (Comprehension of speech of others)

 

– भाषा विकास की यह सबसे पहली अवस्था है जिसमें शिशुओं को दूसरों की भाषा को समझना होता है। इसके लिए यह आवश्यक है कि शिशु परिवार के सदस्यों द्वारा बोले जानेवाले वाक्यों तथा शब्दों का अर्थ समझे। भाषा समझने के लिए यह आवश्यक है कि वह शब्दों का सही-सही प्रयोग करे। प्रायः शिशु हाव-भाव (gestures) तथा आनन-अभिव्यक्ति (facial expression) के आधार पर परिवार के सदस्यों की भाषा को समझने की कोशिश करता है।

(2) शब्दावली का निर्माण करना (Building a vocabulary)

– भाषा विकास का दूसरा महत्त्वपूर्ण चरण शब्दावली का निर्माण करना है। शब्दावली निर्माण में बालकों को शब्दों तथा उनके अर्थ को समझना आवश्यक होता है। सामान्यतः बालक वैसे शब्दों को पहले सीखते हैं जो उनकी भूख प्रेरणा से संबंधित होते हैं। इसके बाद अन्य साधारण शब्दों को सीखता है। जैसे-जैसे बालक नए-नए शब्दों को सीखता है तथा पुराने शब्दों के लिए नए-नए अर्थ समझता है उसकी शब्दावली बढ़ती जाती है। साधारणत: यह देखा गया है कि 18 महीने का बच्चा औसतन 10 शब्दों का प्रयोग करता है। 24 महीने का बालक औसतन 29 शब्दों का प्रयोग करता है। दो वर्ष के बालक का औसत शब्दकोश 200 से 300 शब्दों का होता है और इसी तरह बालक जब स्कूल में पहुँचता है तो उसका शब्दकोश और भी अधिक बढ़ जाता है।

(3) शब्दों का वाक्यों में संगठन (Combining words into sentences)

– शब्दों को मिलाकर वाक्य बनाना और इसे बोलना बालकों के लिए कठिन कार्य है। फिर भी 2 वर्ष की आयु से बालक शब्दों का वाक्यों में गठन करने का पहला प्रयास करते हैं परंतु, ऐसा करने में उन्हें इस उम्र में आंशिक सफलता मिलती है। ऐसे शब्दों को बोलने के साथ-साथ वे उपयुक्त हाव-भाव भी दिखाते हैं जिनसे उन शब्दों का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। 2½ वर्ष की उम्र में बालक संज्ञा तथा क्रिया (noun and verb) शब्दों को मिलाकर एक छोटा वाक्य बनाने की कोशिश करता है परंतु अक्सर छोटा वाक्य भी अधूरा ही रह जाता है। जब बालक 5 साल का हो जाता है, तो सभी शब्द-भेद (parts of speech) को मिलाकर छोटे-छोटे वाक्यों को बोल लेता है। प्रत्येक आनुक्रमिक वर्षों (successive years) में बालक वाक्यों का प्रयोग अधिक प्रवीणता (fluency) के साथ-साथ करता जाता है और वाक्यों में व्याकरण संबंधी दोष घटता जाता है।

मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि जो बालक तीव्र बुद्धि के होते हैं या उच्च सामाजिक-आर्थिक स्तर वाले परिवारों से आते हैं वे लंबे तथा जटिल वाक्यों का प्रयोग वैसे बालकों की अपेक्षा, जो कम बुद्धि के होते हैं या निम्न सामाजिक-आर्थिक स्तर के होते हैं, अधिक करते हैं। बालकों द्वारा वाक्यों के प्रयोग में यौन (sex) का भी प्रभाव पड़ते देखा गया है। अकसर लड़कियों लड़कों की अपेक्षा अधिक लंबे तथा जटिल वाक्यों का प्रयोग करती हैं।

(4) उच्चारण (Pronunciation) –

भाषा विकास का चौथा स्तर है- शब्दों का सही-सही उच्चारण करना सीखना शिशु अनुकरण (imitation) द्वारा शब्दों का उच्चारण करना सीखता है। माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों की भाषा को वह ध्यानपूर्वक सुनता है और उसकी नकल करने की कोशिश करता है। एक वर्ष तक की आयु के बालकों का उच्चारण इतना अस्पष्ट तथा अबोध्य (incomprehensible) होता है कि उसका सही-सही अर्थ केवल उनके माता-पिता तथा परिवार के सदस्य ही समझ सकते हैं।1½ वर्ष की उम्र होने तक उनके उच्चारण में कुछ सुधार होता है, और अब उसे अन्य व्यक्ति भी समझ सकते हैं। कुछ बालक ऐसे होते हैं जो 12-13 साल की उम्र हो जाने के बाद भी शब्दों का अशुद्ध उच्चारण करते हैं। ऐसे बालकों को फिर से उसका सही उच्चारण सिखाना बहुत कठिन हो जाता है क्योंकि उनमें अशुद्ध उच्चारण की एक आदत बन जाती है। 20-22 वर्ष की उम्र में स्वयं ही जब वे उच्चारण के प्रति काफी सचेत हो जाते हैं, तो उनमें कुछ सुधार लाते हैं।

(5) भाषा विकास का स्वामित्व (Mastery of language development)-

इस अंतिम अवस्था में व्यक्ति को शब्दों एवं वाक्यों का सही-सही प्रयोग, भाषा के व्याकरण तथा भाषा के वाक्य-विन्यास ( syntax) आदि का पूर्ण ज्ञान हो जाता है। उसे लिखित भाषा (written language) तथा मौखिक भाषा (spoken language) पर अच्छा नियंत्रण हो जाता है। इस तरह हम देखते हैं व्यक्तियों में भाषा विकास कई चरणों (steps) में पूरा होता है। भाषा विकास इन चरणों द्वारा निरंतर होता रहता है। यद्यपि विकास की गति में अवस्थाओं के अनुसार अन्तर पाया जाता है, फिर भी इन अवस्थाओं के बीच कोई स्पष्ट रेखा नहीं होती है।

इन्हें भी देखें

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