History of Educational Psychology |  शिक्षा मनोविज्ञान का इतिहास

शिक्षा मनोविज्ञान का (History of Educational Psychology ) इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि शिक्षा की प्रक्रिया यदि हम शिक्षा मनोविज्ञान के इतिहास को गौरपूर्वक देखेंगे तो यह स्पष्टतः पाएँगे कि शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में समय-समय पर बड़े-बड़े वैज्ञानिकों द्वारा योगदान किया गया है। ग्रीक दार्शनिकों द्वारा किए गए योगदानों से शिक्षा मनोविज्ञान का इतिहास प्रारंभ होता माना गया है।

शिक्षा मनोविज्ञान का इतिहास
(History of Educational Psychology)

डेमोकरिटस (Democritus) पहले ऐसे दार्शनिक थे जिन्होंने बच्चों के व्यक्तित्व विकास में घरेलू शिक्षा के महत्त्व पर बल डाला था। चौथी शताब्दी में प्लेटो (Plato, 427-347 BC) तथा अरस्तू (Aristotle, 384-322 BC) ने शिक्षा की एक विशेष पद्धति का विकास किया तथा उसमें मनोवैज्ञानिक नियमों एवं सिद्धांतों के महत्त्व की भूमिका पर बल डाला। अरस्तू ने उस समय शिक्षा के विभिन्न पहलुओं पर विशेष रूप से प्रकाश डाला। इन पहलुओं में विभिन्न लोगों के लिए अलग-अलग शिक्षा, चरित्र-शिक्षा, शिक्षण की विभिन्न विधियाँ आदि प्रधान थे। उन्होंने अपने लेखन में शिक्षा के इन विभिन्न पहलुओं में मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों एवं नियमों की उपयोगिताओं पर विशेष रूप से बल दिया है। अरस्तू (Aristotle) मस्तिष्क (mind) के संकाय सिद्धांत (faculty theory) में विश्वास रखकर शिक्षा में मनोवैज्ञानिक नियमो एवं सिद्धांतों की उपयोगिता पर बल डाला था। यही कारण है कि उनके द्वारा शिक्षा के प्रतिपादित मनोवैज्ञानिक आधार का प्रभाव पूरे संसार पर काफी व्यापक रूप से पड़ा। बाद में अरस्तू के शिक्षा सिद्धांतों को परिमार्जित कर अधिक उन्नत बनाया गया। डेस्कार्ट (Descartes. 1596-1650) तथा रूसो (Rousseau) ने भी अरस्तू की विचारधारा का समर्थन किया है। रूसो ने शिक्षा को मानव विकास (human development) के नियमों पर आधारित करने की सिफारिश की। उन्होंने अपनी लोकप्रिय पुस्तक ‘ईमाइल’ (Emile) में शिक्षा की विभिन्न पद्धतियों में मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों एवं नियमों की भूमिका का स्पष्टीकरण किया जान लॉक (John Locke, 1632-1704). जो एक प्रमुख अनुभववादी (empiricist) थे, ने उस समय के महत्त्वपूर्ण संकाय सिद्धान्त की आलोचनात्मक समीक्षा की और बताया कि मस्तिष्क के विभिन्न संकाय (faculty) सचमुच में वास्तविक नहीं है। फलतः उनके द्वारा सम्पन्न होनेवाली विभिन्न तरह की मानसिक क्षमताओं पर अधिक भरोसा नहीं किया जा सकता। इस आलोचना के बावजूद संकाय मनोविज्ञान (faculty psychology) का प्रभाव शिक्षा पर काफी पड़ा। इस प्रभाव के परिणामस्वरूप शिक्षा के एक नए सिद्धान्त का जन्म हुआ जिसे शिक्षा का औपचारिक अनुशासन सिद्धान्त (Theory of formal discipline of education) की संज्ञा दी गई। इस सिद्धान्त के अनुसार कुछ खास-खास कठिन विषयों जैसे गणित, लैटिन (Latin) तथा ग्रीक (Greek) आदि के सीखने से व्यक्ति का मस्तिष्क काफी प्रशिक्षित हो जाता है और तब इस प्रशिक्षित मस्तिष्क का धनात्मक हस्तांतरण (positive (transfer) शिक्षा के हर क्षेत्र में होता है। 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में एक अन्य दार्शनिक शिक्षक (philosopher-educator) जिन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया, पेस्टालोजी (Pestalozzi, 1746-1827) है। इन्होंने शिक्षा को मनोवैज्ञानिक नियमों एवं सिद्धांतों पर आधारित करने पर बल डाला है और शिक्षकों की प्रशिक्षण विधि में क्रांतिकारी परिवर्तन अपने इस विशेष सुझाव द्वारा लाया कि शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तियों को क्षमताओं को जगाना (stimulate) तथा साथ-साथ उसकी बेहतरीन क्षमताओं को विकसित करना है। उन्होंने मानव विकास के नियम (laws of human development) तथा सीखने की विधि का भी प्रतिपादन कर शिक्षकों के प्रशिक्षण कार्यक्रम (training programme) में रचनात्मक योगदान दिया।।

History of Educational Psychology

शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में 18वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशको (decades) में दो अन्य जर्मन दार्शनिक-शिक्षकों (philosopher-educators) ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान किया। उनके नाम है- जोहान हरबार्ट (Johanm Herbart, 1776-1841) तथा प्रोबेल (Froebel 1782-1852) 1 इन लोगों ने शिक्षा का एक ऐसा सिद्धांत विकसित किया जो मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित है। इन
लोगो द्वारा संकाय मनोविज्ञान (faculty psychology) के सिद्धांत को अस्वीकृत कर दिया गया। -हरबार्ट (Herburt) द्वारा शिक्षा में अभिरुचि (interest) तथा आत्मबोध (apperceptian) जैसे तथ्यों के महत्त्व पर अधिक बल डालने की सिफारिश की गई। प्रोबेल ने बच्चों को पढ़ाने को एक नई पद्धति का विकास किया जिसे किंडरगार्टेन विधि (Kindergarten method) कहा जाता है। इस विधि द्वारा बच्चों को शिक्षा देने में प्रारंभिक अनुभूतियों (early experiences) के महत्त्व पर अधिक प्रकाश डाला जाता है।

अब तक जो कुछ भी ऊपर में शिक्षा मनोविज्ञान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के रूप में कहा गया है. वह मूलतः दार्शनिक-शिक्षकों (philosopher-educators) के योगदानों पर आधारित था। सही अर्थ में शिक्षा मनोविज्ञान का इतिहास 1880 में कैन्सिस गाल्टन (Sir Francis Galton. 1822-1911) द्वारा किए गए अभूतपूर्व योगदानों से प्रारंभ होता है। गाल्टन ने वैयक्तिक विभिन्नता
(individual differences) के अध्ययन पर अधिक बल डाला जिसका परिणाम यह हुआ कि व्यक्ति की मानसिक क्षमता (mental ability) के मापन की ओर लोगों का ध्यान गया। गाल्टन पहले ऐसे मनोवैज्ञानिक थे जिन्होंने व्यक्ति की मानसिक क्षमता को मापने के लिए एक मनोवैज्ञानिक परीक्षण (psychological test) का निर्माण किया था। गाल्टन का यह भी विचार था कि व्यक्तियों की बुद्धि की माप उनकी संवेदी क्षमताओं (sensory capacities) के आधार पर किया जाना चाहिए। इसके बाद
जी० स्टेनले हाल (G. Stanley Hall, 1844-1924) ने प्रश्नावली के सहारे बच्चों के शैक्षिक व्यवहारों का अध्ययन कर लोगों का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया। इस दिशा में इबिगहास (Ebbinghaus, 1850–1909) तथा विलियम जेम्स (1842-1910) द्वारा पहले कुछ इस प्रकार के अध्ययन किए जा चुके थे जिससे शिक्षा मनोविज्ञान को अनेक नए सिद्धांतो एवं तथ्यों की प्राप्ति हो
चुकी थी।

विलियम जेम्स ने 1899 में कई व्याख्यानों (lectures) की एक श्रृंखला प्रकाशित की जिसका शीर्षक था- ‘टॉक्स टू टीचर्स’ (Talks To Teachers), जिसमें उन्होंने मूलतः बच्चों को शिक्षित करने में मनोविज्ञान की उपयोगिताओं का वर्णन किया। उनका तर्क था कि प्रयोगशाला मनोविज्ञान के प्रयोग प्रायः यह बतलाने में असमर्थ रहते हैं कि बच्चों को प्रभावी ढंग से कैसे शिक्षित किया जा सकता है। वे शिक्षा को उन्नत बनाने के लिए कक्षा में शिक्षण (teaching) एवं अधिगम (learning) को ध्यानपूर्वक प्रेक्षण करने पर बल डालें। शिक्षा को उन्नत बनाने के खयाल से उनके द्वारा की गई कई सिफारिशों में से सबसे प्रमुख सिफारिश यह थी कि वर्ग में बच्चों के सामने सीखने के लिए रखे पाठ का स्तर उसके ज्ञान के स्तर से थोड़ा ऊँचा होना चाहिए ताकि बच्चे अपने मन या मस्तिष्क पर अधिक बल देकर उसका समाधान करना सीखें।

उसी समय के दूसरे अति महत्त्वपूर्ण व्यक्ति जिन्होंने शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र को विकसित करने में अभूतपूर्व योगदान किए, वे थे जॉन डिवी (John Dewey, 1859-1952) जो सचमुच में मनोविज्ञान के व्यावहारिक उपयोग पहलू के अग्रणी थे। उन्होंने 1894 में शिकागो विश्वविद्यालय में पहली बृहत शिक्षा मनोविज्ञान की प्रयोगशाला (laboratory) की स्थापना की। बाद में उन्होंने कोलम्बिया विश्वविद्यालय में जाकर वहाँ भी अपने इस नवीन एवं महत्त्वपूर्ण कार्य पर शोध किए और उसे आगे बढ़ाया। जॉन डिवी के निम्नलिखित तीन विचारों (ideas) का प्रभाव शिक्षा मनोविज्ञान के विकास के लिए काफी लाभदायक सिद्ध हुआ

(i) उन्होंने बच्चों को एक निष्क्रिय (passive) शिक्षार्थी न मानकर सक्रिय शिक्षार्थी (active learner) माना। इसके पहले लोगों का मत था कि बच्चे वर्ग या कक्षा में शांत भाव से बैठते है तथा निष्क्रिय ढंग से किसी पाठ को रटरटकर सीखते हैं। उन्होंने इस विचारधारा को अस्वीकृत किया और कहा कि बच्चे किसी कार्य को सक्रिय ढंग से करके ही उत्तम ढंग से सीखते हैं।

(ii) डिवी का मत था कि उत्तम शिक्षा वही है जो बच्चों पर सम्पूर्ण ढंग से बल डालता हो और वातावरण के साथ बच्चों के समायोजन के महत्व को भी समझता हो। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि शिक्षकों को सिर्फ बच्चों को किसी शैक्षिक विषय का ज्ञान ही देना पर्याप्त नहीं है बल्कि उनमें यह भाव भी पैदा करना चाहिए कि उस विषय पर किस तरह से सोचना चाहिए और स्कूल के बाहर के वातावरण के साथ किस ढंग से समायोजन (adjustment) किया जाना चाहिए। उन्होंने इस बात सर्वाधिक बल डाला कि बच्चों को एक विचारशील समस्या साधक (reflective problem solver) बनने की भरपूर कोशिश करनी चाहिए।

(iii) डिवी का तीसरा महत्त्वपूर्ण विचार यह था कि सभी बच्चे एक सुयोग्य शिक्षा पाने लायक होते हैं। उनका मत था कि विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समूह (socio-economic group) तथा प्रजातीय समूह (ethnic group) के सभी लड़के एवं लड़कियों को सुयोग्य शिक्षा
(competent education) दिया जाना चाहिए। इससे पहले सुयोग्य शिक्षा देने की प्रथा केवल उन्हीं बच्चों तक सीमित थी, जो धनी परिवार से आते थे।

20वीं शताब्दी के प्रारंभ में शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में अल्फ्रेड बिने (Alfred Binet) द्वारा एक महत्वपूर्ण योगदान किया गया। इन्होंने बालकों की बुद्धि मापने के लिए सबसे पहला बुद्धि परीक्षण (intelligence tests) का निर्माण किया जो 1905 में ‘बिने-साइमन मापनी’ (Binet-Simon scale) के नाम से प्रकाशित हुआ। जेम्स मैककीन कैटेल (UM Cattell. 1860-1944) ने वैयक्तिक विभिन्नता (individual differences) तथा मानसिक परीक्षणों (mental tests) के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रयोग करके शिक्षा मनोविज्ञान के स्वरूप को प्रयोगात्मक बनाया। बाद में कैटेल के शिष्य ई. एल० थॉर्नडाइक (EL Thorndike, 1874-1949) द्वारा उनके कार्यों को आगे बढ़ाया गया और शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने अपने गुरु से भी एक कदम आगे बढ़कर योगदान किया थॉर्नडाइक ने सीखने का एक सिद्धांत विकसित किया तथा सीखने के नियमों (laws) का भी प्रतिपादन किया। इन नियमों में प्रभाव-नियम (law of effect) द्वारा शिक्षा की समस्याओं को सुलझाने में काफी मदद मिली। घॉर्नडाइक ने 1903 में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक शिक्षा मनोविज्ञान’ (Educational Psychology) का
प्रतिपादन किया जिसमें उन्होंने हस्तांतरण (transfer) के एक नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया जिसे समरूप तत्त्वों का सिद्धांत (Theory of identical elements) कहा गया जिसके अनुसार एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में हस्तांतरण (transfer) या मदद की मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि इन दोनों परिस्थितियों में समान या समरूप तत्त्व (identical elements) कितने हैं। ऐसे तत्वों की संख्या जितनी अधिक होगी, धनात्मक हस्तांतरण (positive transfer) की मात्रा उतनी अधिक होगी। इस सिद्धांत का प्रतिपादन उन्होंने औपचारिक अनुशासन के सिद्धांत (theory of formal discipline) को अस्वीकृत करने के बाद किया था। 1922 में थॉर्नडाइक ने अंकगणित की शिक्षा देने के लिए सात प्रमुख नियमों का भी प्रतिपादन किया जो शिक्षा मनोविज्ञान के लिए आज भी एक अभूतपूर्व योगदान माना गया है। उन्होंने इस बात से इनकार किया कि बुद्धि में कोई सामान्य मानसिक क्षमता (general mental ability) जैसी चीज होती है। शायद यही कारण है कि उन्होंने बिन (Binet) द्वारा प्रतिपादित बुद्धि परीक्षण का विरोध किया और उसकी जगह उन्होंने अपना एक नया बुद्धि परीक्षण बनाया जिसे CAVD परीक्षण (CAVD test) कहा गया। इस बुद्धि परीक्षण में चार उपपरीक्षण थे- पूर्ति (Completion), अंकगणितीय चिंतन (Arithmetic reasoning ex शब्दावली (Vocabulary) तथा दिशा (Direction)। सच पूछा जाए तो थॉर्नडाइक के महत्वपूर्ण योगदानों से हो शिक्षा मनोविज्ञान का वैज्ञानिक काल प्रारंभ होता है।

बी० एफ० स्कीन्नर (B F Skinner, 1938) की विचारधारा जो काफी हद तक थॉर्नडाइक के
विचार पर हो आधृत थी, शिक्षा मनोविज्ञान को काफी प्रभावित किया। स्कीन्नर का व्यवहारपरक
उपागम (behavioural approach) में बच्चों के अधिगम (leaming) के लिए उत्तम अवस्थाओं
(best conditions) की पहचान की कोशिश की गई स्कीन्नर का मत था विलियम जेम्स तथा
जॉन डिवी द्वारा प्रस्तावित मानसिक प्रक्रियाओं का प्रेक्षण (observation) नहीं किया जा सकता है।
फलतः, यह मनोविज्ञान का उचित अध्ययन विषय नहीं हो सकता है। 1950 दशक में स्कीन्नर
ने कार्यक्रमित अधिगम (programmed learning) के संप्रत्यय को विकसित किया जिससे छात्रो
को प्रत्येक उपलक्ष्य (subgoal) पर पहुँचने पर पुनर्बलन (reinforcement) देते हुए उन्हें अंतिम
लक्ष्य पर पहुँचने के लिए प्रेरित किया जाता है। स्कीन्नर ने अपने आरंभिक प्रयासों में एक शिक्षण

मशीन (teaching machine) का सृजन किया जो एक शिक्षक (futor) के रूप में कार्य करता था। तथा सही उत्तर देने पर छात्रों को पुनर्बीलित (reinforce) भी करता था। परंतु, स्कीन्नर के इस व्यवहारपरक उपागम से वर्ग के शिक्षकों की बहुत सी आवश्यकताओं एवं लक्ष्यों की पूर्ति नहीं हो पाती थी। परिणामस्वरूप, इसकी प्रतिक्रिया (reaction) के रूप में बेनजामिन ब्लूम (Benjamin Bloom) ने 1950 वाले दशक के आरंभिक वर्षों में संज्ञानात्मक कौशलों (cognitive skills) का एक वर्गीकरण (taxonomy) तैयार किया जिसमे स्मरण (remembering), (comprehending), संश्लेषण (synthesizing) तथा मूल्यांकन (evaluation) को सम्मिलित किया और उन्होंने इस बात पर बल डाला कि शिक्षकों को इन कौशलों को छात्रों में विकसित करना चाहिए और उनके उपयोग किए जाने पर बल डालना चाहिए। इसके परिणामस्वरूप शिक्षा मनोविज्ञान में संज्ञानात्मक परिदर्श (cognitive perspective) का प्रभाव बढ़ने लगा और यह संदर्भ स्पष्ट रूप से इस बात का उल्लेख किया कि अधिगम निर्देश (learning instruction) का व्यवहारपरक विश्लेषण (behavioural analysis) द्वारा वर्ग में अधिगम निर्देश की उपयुक्त व्याख्या नहीं हो पाती है। इसका ऐसा प्रभाव पड़ा कि 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बहुत सारे शिक्षा मनोवैज्ञानिकों द्वारा विलियम जेम्स तथा जॉन डिवी द्वारा प्रारंभ में अधिगम के संज्ञानात्मक पहलू पर दिए गए बल (emphasis) को फिर से पुनर्जीवित किया गया। आज संज्ञानात्मक तथा व्यवहारपरक (behavioural) उपागम दोनों ही शिक्षा मनोविज्ञान के महत्त्वपूर्ण पहलू माने जा रहे है। 20वीं शताब्दी के अंतिम दशाब्दी में शिक्षा मनोवैज्ञानिकों द्वारा छात्री के सामाजिक-सांयोगिक पहलुओं (socio-emotional aspects) पर भी पर्याप्त बल डाला जाने लगा है। जैसे, आजकल स्कूल को एक सामाजिक संदर्भ (social context) के रूप में तथा शिक्षा में संस्कृति (culture) को भूमिका का भी विश्लेषण किया जाने लगा है।

1950 के बाद शिक्षा मनोविज्ञान में तीव्र विकास हुआ है। आजकल शिक्षा मनोवैज्ञानिक सिर्फ सीखने (learming) तथा सिखाने (teaching) के क्षेत्रों में ही नहीं कार्य कर रहे हैं, बल्कि वे अन्य संबंधित प्रमुख क्षेत्रों में जैसे मानसिक स्वास्थ्य (mental health), सामाजिक कुसमायोजन (Social maladjustment), शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन (educational and vocational guidance) तथा मापन एवं मूल्यांकन (measurement & evaluation) जैसे नए-नए क्षेत्रों में भी कार्यरत हैं। इन नए-नए क्षेत्रों में भारतीय मनोवैज्ञानिकों द्वारा भी महत्त्वपूर्ण योगदान किए जा रहे है जो आगे आनेवाले दशकों में इतिहास के पन्नों का महत्त्वपूर्ण भाग बनेंगे।

इन्हें भी देखें

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *