8 Types of Erikson’s Theory of Psychosocial Development | इरिक्सन का मनोसामाजिक सिद्धांत

परिचय :- Erikson’s Theory of Psychosocial Development :– इरिक इरिक्सन (Erik Erikson) की मूल अभिरुचि इस बात में थी कि बच्चों, किशोरों आदि में व्यक्तिगत पहचान  किस तरह से विकसित होती है

और समाज उस पहचान को बनाने में किस तरह से मदद करता है। चूंकि उनके सिद्धांतों में व्यक्तिगत , सांवेगिक  तथा सांस्कृतिक  या सामाजिक विकास  को समन्वित किया गया है, अतः इसे मनोसामाजिक सिद्धांत कहा जाता है। चूँकि इस सिद्धांत में पूरे जीवन-अवधि  में होनेवाले विकास को आठ विभिन्न अवस्थाओं में बाँटकर अध्ययन किया जाता है, अतः उनके इस सिद्धांत की कुछ मनोवैज्ञानिकों द्वारा जीवन अवधि विकास सिद्धांत  भी कहा गया है

Erikson's Theory of Psychosocial Development

Erikson’s Theory of Psychosocial Development

| इरिक्सन का मनोसामाजिक सिद्धांत

Erikson’s Theory of Psychosocial Development के कुछ मुख्य सिदांत –

(1) विश्वास बनाम अविश्वास (Trust vs Mistrust)

इरिक्सन के सिद्धांत में यह पहली अवस्था है जिसकी अवधि जन्म से 1 साल की होती है। जिन बच्चों को अपने माता-पिता तथा अन्य देखरेख करनेवाले व्यक्तियों से सतत उचित स्नेह, प्यार आदि मिलता है, उनमें विश्वास  का भाव विकसित होता है। दूसरे तरफ जिन बच्चों को माता-पिता तथा अन्य देख-रेख करनेवाले व्यक्तियों द्वारा प्रायः रोते-बिलखते तथा चिल्लाते छोड़ दिया जाता है, उनमें दूसरों के प्रति अविश्वास  विकसित हो जाता है जिससे उसे दूसरों के बारे में शक तथा दूसरों से अनावश्यक डर उत्पन्न हो जाता है। शिशु में स्वस्थ व्यक्तित्व का विकास इस बात पर निर्भर करता है कि उसके जिंदगी में अविश्वास के अनुपात में विश्वास की मात्रा कितनी अधिक है। विश्वास तथा अविश्वास दोनों की स्थिति मौजूद रहने पर शिशु में संकट  उत्पन्न होता है और जब वह इस संकट का सफलतापूर्वक समाधान कर लेता है, तो इससे उसमें एक विशेष मनोसामाजिक शक्ति  जिसे ‘आशा’  कहा जाता है, उत्पन्न होती है। आशा की उत्पत्ति से आगे चलकर जब यह शिशु वयस्क हो जाता है, तो वह अपने सांस्कृतिक मूल्यों तथा धर्म आदि में काफी आस्था दिखलाता है।

(2) स्वायत्तता वनाम लज्जा तथा शक (Autonomy vs Shame and Doubt)

इरिक्सन के सिद्धांत की यह दूसरी अवस्था  है जिसकी अवधि 1 साल से 3 साल की होती है। जब बच्चों को अपने माता-पिता या देखरेख करनेवालों में विश्वास उत्पन्न हो जाता है, तो फिर उनमें यह भाव उत्पन्न होने लगता है कि उनके व्यवहार बिलकुल अपने हैं और व्यवहारों को करने में वे स्वायत्तता या स्वतंत्रता को महत्त्व देने लगते हैं। वे अपने से खाना खाना, कपड़ा पहनना तथा शौच करना ज्यादा पसंद करने लगते हैं। वे अब दूसरों पर निर्भर रहना नहीं चाहते हैं। इस बिंदु पर माता-पिता को बच्चों को स्वतंत्र रूप से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। दूसरे तरफ, बहुत ही सख्त माता-पिता या वैसे माता-पिता जो प्रायः बच्चों को साधारण कार्य को भी करने में डॉटते या पीटते हैं, तो ऐसे बच्चों को अपनी क्षमता  पर शक होने लगता है तथा वे अपने ही अंदर से लज्जा अनुभव करते है। जब बच्चा स्वायत्तता बनाम लज्जा तथा शक के संघर्ष  का सफलतापूर्वक समाधान कर लेता है, तो उसमें जो मनोसामाजिक शक्ति का जन्म होता है, उसे इच्छा शक्ति  कहा जाता है जिसके फलस्वरूप बच्चे शक तथा लज्जा की परिस्थिति में भी खुलकर अपने स्वतंत्र पसंद  तथा आत्म-नियंत्रण  का प्रयोग करके व्यवहार कर पाते हैं।

(3) पहल बनाम दोष (Initiative vs Guilt)

इरिक्सन के सिद्धांत की यह तीसरी अवस्था  होती है जिसकी अवधि 3 साल से 5 साल की होती है। यह बच्चों का प्राक्स्कूली वर्ष  होते हैं तथा यह अवधि आरंभिक बाल्यावस्था  की होती है। जब बच्चों में स्वायत्तता  का भाव विकसित हो जाता है, तो वे अब अपने इर्द-गिर्द के वातावरण में अन्वेषण (exploration) करना प्रारंभ कर देते हैं तथा नयी-नयी उत्सुकता (curiosity) दिखलाना प्रारंभ कर देते हैं। इस अवस्था में बच्चे अनेक संज्ञानात्मक उछाल (cognitive leaps) दिखलाते हैं और यह विकसित हो रही क्षमताएँ बच्चों को जिंदगी के सभी क्षेत्रों में नये-नये अन्वेषण करने को प्रेरणा देते हैं। इसे पहल (initiative) की संज्ञा देते हैं। माता-पिता को चाहिए कि वे इनके इस प्रयास की सराहना करें। यदि किसी कारण से माता-पिता बच्चों के इस पहल (initiative) की आलोचना करते हैं या उन्हें दंडित करते हैं, तो इससे बच्चों में दोषभाव (guilt feeling) उत्पन्न हो जाता है। जब बच्चों में पहल का अनुपात इस दोषभाव के अनुपात से अधिक होता है, यानी पहल बनाम दोषभाव के संघर्ष का (संकट का) जब वह समाधान कर लेता है, तो उनमें एक विशेष मनोसामाजिक गुण (psychosocial virtue) विकसित होती है जिसे उद्देश्य (purpose) कहा जाता है और इसके परिणामस्वरूप बच्चे में लक्ष्य उन्मुखी व्यवहार (goal-directed behaviour) करने की प्रेरणा उत्पन्न होती है।

(4) परिश्रम बनाम हीनता (Industry vs Inferiority)

मनोसामाजिक अवस्था की यह चौथी अवस्था होती है जिसकी अवधि 6 साल से 12 साल की होती है। इस अवधि को उत्तरवाल्यावस्था  भी कहा जाता है। जब बच्चों में पहल  से तरह-तरह की नयी अनुभूतियाँ प्राप्त हो जाती है, तो वे अपनी ऊर्जा को नये ज्ञान अर्जित करने तथा बौद्धिक कौशल  को सीखने में लगाना प्रारंभ कर देते हैं। यहाँ वे अपनी प्राप्त सफलता एवं उसकी पहचान से काफी प्रोत्साहित भी होते हैं। इस पहलू को ‘परिश्रम’  की संज्ञा दी जाती है। चूँकि बच्चे इस अवस्था में स्कूल में ही अधिकतर समय तथा ऊर्जा लगाते हैं, इसलिए शिक्षक तथा साथी-संगी का प्रभाव यहाँ महत्त्वपूर्ण होता है। अगर छात्र के सामने चुनौतियाँ  काफी कठिन होती है और उससे उन्हें असफलता हाथ लगती है, तो इससे बच्चों में हीनता  का भाव विकसित होता है। उसी तरह से यदि छात्र को तुच्छ कार्य पर सफलता हासिल हुई होती है, तो उसमें परिश्रम का भाव विकसित नहीं हो पाता है। वाइल्लान्ट तथा वाइल्लान्ट  ने विकास के क्षेत्र में एक आनुक्रमिक अध्ययन  किया और पाया कि बुद्धि , पारिवारिक पृष्ठभूमि (family background) तथा परिश्रम ( industry) में परिश्रम मात्र अकेला ही बच्चों में बाद में होनेवाले व्यक्तिगत समायोजन (personal adjustment), आर्थिक सफलता (economic (interpersonal relationship) में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता सचमुच यह परिणाम बहुत उत्साहवर्द्धक (encouraging) है क्योंकि यह इस इशारा करता कि अगर शिक्षक छात्रों को चुनौतियों से निपटने में मदद करते हैं, तो ऐसे छात्र अपनी जिंदगी में आनेवाले बहुत सारे बाधाओं से आसानी से निपट सकते हैं।

जो छात्र परिश्रम बनाम हीनता के संकट का सफलतापूर्वक विशेष मनोसामाजिक गुण  होता है जिसे सामर्थ्यता (competency) की संज्ञा दी जाती है। इसके परिणामस्वरूप छात्रों में यह विश्वास उत्पन्न होता है, कि वातावरण के साथ ठीक ढंग से निपटने में सक्षम हैं।

(5). पहचान बनाम संभ्रांति (Identity vs Confusion)

इरिक्सन सिद्धांत यह पाँचवी है किशोरावस्था (adolescence) अवस्था होती इस अवस्था में किशोरों में यह जानने की प्राथमिकता होती कौन हैं, किसलिए हैं और अपने जिंदगी कहाँ जा हैं। इसे ने पहचान (identity) संज्ञा किशोर को बहुत सारे नयी भूमिकाएँ करनी होती हैं एवं वयस्क स्थिति (adult stages) निभानी पड़ती एक स्वस्थ पहचान बनाए रखने लिए किशोरों को भिन्न-भिन्न दिशाओं भिन्न-भिन्न राहों (paths) का अन्वेषण करना होता है। अगर किसी किशोर भिन्न-भिन्न भूमिकाओं अन्वेषण कर पाते और एक भविष्य का रास्ता निश्चित पाते अपनी पहचान के में संभ्रांति (confusion) की स्थिति में होते जब पहचान बनाम संभ्रांति संकट का सही समाधान कर उनमें एक विशेष मनोसामाजिक गुण (psychosocial virtue) उत्पन्न होता है, जिसे कर्तव्यपरायणता (fidelity) की संज्ञा जाती इसके परिणामस्वरूप किशोर छात्रों में नियमों तथा आदर्शों (idealogies) के अनुरूप व्यवहार उन्मुखता बढ़ जाती है।

(6) घनिष्ठता वनाम अलगाव (Intimacy Isolation )

इरिक्सन सिद्धांत छठी जिसकी प्रथम 20 आरंभिक वयस्कावस्था adulthood अवस्था दूसरों साथ घनात्मक संबंध बनाता है। जब व्यक्ति में दूसरों साथ विकसित होता वह अपने आपको दूसरों के लिए समर्पित कर है। लोग दूसरों इस ढंग घनिष्ठता कर पाते हैं, सामाजिक रूप अलग (socially isolated) जाते और उनके लिए अकेलापन जिंदगी काली साया के समान होती है। इस तरह इस अवस्था प्रमुख संकट घनिष्ठता-बनाम-अलगाव संघर्ष होता और जो लोग संकट का सही-सही समाधान कर लेते एक विशेष मनोसामाजिक गुण (psychosocial virtue), प्यार (love) विकसित है। इसमें रोमान्स अतिरिक्त दूसरों के साथ करने और उसे ईमानदारी एवं वफादारी निभाने गुण सम्मिलित संघर्ष समाधान ठीक नहीं कर हैं, सांवैगिक रूप अलग और स्नेह एवं प्यार दूसरों देने एवं से लेने असमर्थ रहते हैं।

(7) जननात्मकता बनाम स्थिरता (Generativity vs Stagnation)

 

इरिक्सन के सिद्धांत में यह सातवीं अवस्था है जो 40 साल से 50 साल की आयु तक की होती है। इसे मध्यवस्कावस्था (middle adulthood) भी कहा जाता है। इस अवस्था में व्यक्ति में जननात्मकता (generativity) का भाव उत्पन्न होता है। जननात्मकता से तात्पर्य अगली पीढ़ी में कुछ धनात्मक चीजों को अंतरित करने से होता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जननात्मकता से तात्पर्य व्यक्ति द्वारा अगली पीढ़ी के लोगों के कल्याण तथा उस समाज के लिए जिसमें वे लोग रहेंगे, को उन्नत बनाने की चिंता से होता है। थोड़े अधिक विस्तृत अर्थ में जननात्मकता में उत्पादकता (productivity) तथा सर्जनात्मकता (creativity) भी सम्मिलित होता है। शिक्षक जो अपने छात्रों एवं उनके उचित शिक्षा-दीक्षा के बारे में सचमुच में चिंता दिखलाते हैं, वे जननात्मकता के उदाहरण हैं। जब व्यक्ति में जननात्मकता की चिंता उत्पन्न नहीं होती है, तो इससे उसमें स्थिरता (stagnation) उत्पन्न हो जाता है और ऐसी स्थिति में व्यक्ति में यह भाव उत्पन्न होता है कि वह अपने अगली पीढ़ी के लिए कुछ भी नहीं कर सके। यह एक तरह की आत्म-तल्लीनता (self-absorbtion) की स्थिति होती है जिसमें व्यक्ति की अपनी वैयक्तिक आवश्यकताएँ एवं सुख-सुविधा ही सर्वोपरि होता है। जब व्यक्ति जननात्मकता बनाम स्थिरता के संकट (crisis) का समाधान ठीक से कर लेता है, तो उसमें एक विशेष मनोसामाजिक शक्ति (psychosocial strength) उत्पन्न होती है जिसे इरिक्सन ने देखभाल (care) की संज्ञा दी है जिसमें व्यक्ति दूसरों के कल्याण की चिंता अधिक दिखलाता है।

(8) संपूर्णता बनाम निराशा (Integrity vs Despair )

इरिक्सन के मनोसामाजिक विकास की यह अंतिम अवस्था होती है जिसमें लगभग 60 वर्ष या उससे ऊपर से प्रारंभ होकर मृत्यु तक की अवधि सम्मिलित होती है। सभी संस्कृति में इस अवस्था को बुढ़ापा की अवस्था कहा गया है। इस अवस्था में व्यक्ति का ध्यान भविष्य से हटकर अपने बीते दिनों पर विशेषकर उसमें प्राप्त सफलताओं एवं असफलताओं की ओर अधिक होता है। अगर व्यक्ति अपने पिछले समय का मूल्यांकन धनात्मक ढंग से करता है अर्थात सफलता अधिक एवं असफलताएँ कम होने का अनुभव करता है, तो उनमें संपूर्णता (integrity) का भाव विकसित होता है अर्थात वे अपनी जिंदगी को धनात्मक रूप से पूर्ण एवं रहने योग्य समझते हैं। परंतु, यदि वे यह समझते हैं कि उनकी पिछली उपलब्धियों ऋणात्मक (negative) रही हैं, तो उनमें निराशा का भाव विकसित होता है। जब संपूर्णता बनाम निराशा के संकट का समाधान वह ठीक से कर लेता है, तो उसमें परिपक्वता (maturation) जैसी मनोसामाजिक शक्ति (psychosocial strength) विकसित होती है तथा बुद्धिमत्ता का व्यावहारिक ज्ञान (practical sense of wisdom) व्यक्ति में उत्पन्न होता है।

इरिक्सन के इस सिद्धांत का समुचित मूल्यांकन  करते हुए यह कहा जा सकता है कि उनका सिद्धांत जिंदगी के महत्त्वपूर्ण सामाजिक-सांवेगिक कार्यों  पर ध्यान देता है तथा उनकी व्याख्या एक विकासात्मक फ्रेमवर्क (developmental framework) में करता है। कॉलेज छात्रों एवं प्रौढ़ किशोरों  को समझने में उनके द्वारा प्रतिपादित पहचान (identity) के संप्रत्यय को शिक्षा मनोवैज्ञानिकों द्वारा काफी महत्त्व दिया गया है। इस गुणवत्ता के बावजूद इरिक्सन के सिद्धांत की आलोचना (criticism) की गई है। कुछ लोगों का मत है कि इरिक्सन की अवस्था जरूरत से ज्यादा कठोर एवं सख्त (rigid) है। न्यूग्राटेन (Neugraten, 1988) का मत है कि पहचान (identity), घनिष्ठता (intimacy), स्वतंत्रता (independence) तथा सामाजिक-सांवेगिक विकास (socio-emotional development) के अन्य पहलू कुछ ऐसे नहीं है जो स्पष्टतः उम्र अंतराल (age intervals) पैकेज पर स्पष्ट रूप से दिखलाई देते हैं जैसा कि इरिक्सन ने अपने सिद्धांत में कहा है, बल्कि वे कुछ ऐसी समस्याएँ है जो पूरे जिंदगी के दौरान दिखलाई देती हैं और उनकी आवश्यकता होती है। कुछ लोगों का मत है कि इरिक्सन का सिद्धांत वैज्ञानिक ढंग से पूर्णतः सही नहीं उतरता है। उदाहरणस्वरूप, कुछ लोगों के लिए विशेषकर महिलाओं में पहचान का भाव उत्पन्न होने के पहले घनिष्ठता की प्रक्रिया उत्पन्न होती है या फिर ये दोनों ही साथ-साथ ही उत्पन्न होते हैं जबकि इरिक्सन का सिद्धांत यह कहता है कि सभी व्यक्ति में पहले पहचान का भाव उत्पन्न होता है और तब बाद में घनिष्ठता उत्पन्न होती है।

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Social Development in Early Childhood

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