samajikaran ke sadhan ya abhikaran | समाजीकरण के साधन या माध्यम  

samajikaran ke sadhan ya abhikaran |  समाजीकरण के साधन या माध्यम  

 

Samajikaran ke sadhan ya abhikaran के अनुसार  सामाजिक प्रत्याशाओं (social expectations) तथा सामाजिक मानदंडों (social norms) के अनुसार जब बालक व्यवहार करना सीख लेता है तो इसे समाजीकरण की संज्ञा दी जाती है। शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने अनेक ऐसे साधनों (agencies) का वर्णन किया है जिनके सहारे बालकों के समाजीकरण (socialisation) की प्रक्रिया सम्पन्न होती है।

samajikaran ke sadhan ya abhikaran निम्नांकित अधिक मुख्य है

 

(1) परिवार (Family)

 

– समाजीकरण के अनेक साधनों में परिवार का महत्त्व अद्वितीय है। चूँकि परिवार एक प्राथमिक समूह (primary group) है, अतः इसके सदस्यों, जैसे माता-पिता, भाई बहन, चाचा-चाची आदि में एक धनिष्ठ संबंध होता है। इनके बीच दुलार प्यार, सहयोग आदि की भावना अधिक होती है। इन सबका प्रभाव बालकों के समाजीकरण पर अधिक पड़ता है। अनेक मनोवैज्ञानिकों का मत है कि परिवार ही वह पहली संस्था है जो बालकों को शिष्टाचार एवं नैतिक विकास की शिक्षा देकर उन्हें योग्य बनाता है। में बालक की सबसे पहली अंतःक्रिया (interaction) माता-पिता से होती है। अतः यह बिलकुल स्वाभाविक है कि बालकों के समाजीकरण में बालकों के साथ माता-पिता द्वारा किया गया व्यवहार अधिक महत्त्वपूर्ण है। मनोवैज्ञानिकों ने बालकों के साथ होनेवाले माता-पिता के व्यवहारों के भिन्न-भिन्न पहलुओं (dimensions) का अध्ययन किया है और इनलोगों का सामान्य निष्कर्ष यही रहा है कि इनके दो पहलू काफी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इनसे बालकों का समाजीकरण (socialisation) सीधे प्रभावित होता है। वे दो पहलू हैं- हार्दिकता विद्वेष (warmth hostility) तथा प्रतिबंधकता-अनुज्ञात्मकता (restrictiveness-permissiveness)। कुछ माता-पिता ऐसे होते हैं जो अपने बच्चों को बहुत दुलार प्यार, स्नेह आदि देते हैं। अतः ऐसे माता-पिता में हार्दिकता (warmth) अधिक होती है। दूसरी तरफ कुछ माता-पिता इसके विपरीत होते हैं और बात-बात में बच्चों को डाँटते हैं, पीटते हैं तथा उन्हें गाली देते हैं। अत। ऐसे माता-पिता में विद्वेष (hostility) अधिक होती है। मनोवैज्ञानिकों ने इस बात पर सहमति व्यक्त की है कि जिन माता-पिताओं द्वारा बालकों के प्रति हार्दिकता दिखाई जाती है, उनके बच्चों में सामाजिक शीलगुणों एवं सामाजिक व्यवहारों का विकास तेजी से होता है, माता-पिता से विद्वेष (hostility) पानेवाले बालकों में ऐसे गुणों का विकास नहीं होता। माता-पिता से उचित दुलार प्यार एवं स्नेह मिलने से बालकों में सुरक्षा की भावना (feeling of security), आत्मसम्मान (self-respect), आत्मविश्वास (self-confidence) आदि गुण उपजता है जिससे  उनमें बाद में बहुत तरह के सामाजिक रूप से अनुमोदित व्यवहार तेजी से विकसित होते है। परंतु, समाजीकरण के लिए सिर्फ माता-पिता का प्यार एवं स्नेह ही आवश्यक नहीं हैं बल्कि यह भी आवश्यक है कि बालकों द्वारा किए गए व्यवहारों पर माता-पिता का नियंत्रण (parental control) कितना है। बालको के व्यवहारों पर नियंत्रण रखने से संबंधित माता-पिता का व्यवहार दो तरह का होता है। कुछ माता-पिता काफी प्रतिबंधक (restrictive) स्वभाव के होते हैं जो शायद ही कभी अपने बच्चों को स्वतंत्र होकर कहीं आने-जाने या उन्हें कोई कार्य करने की आजादी देते हैं। दूसरी तरफ कुछ माता-पिता काफी अनुज्ञात्मक प्रकृति (permissive nature) के होते हैं जो बच्चों के व्यवहारों पर शायद ही कभी प्रतिबंध लगाते हैं या उनपर नियंत्रण की कोई बात सोचते हैं। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि इन दोनों तरह के नियंत्रणों से समाजीकरण की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है।

माता-पिता और बच्चों के बीच अंत क्रिया (interaction) के अलावा परिवार के अन्य पहलू (aspect), जैसे उसका आकार (size) यानी उसमें सदस्यों की संख्या एवं परिवार के भौतिक वातावरण (physical environment) का भी प्रभाव समाजीकरण पर पड़ता है। मनोवैज्ञानिकों का मत है कि जैसे-जैसे किसी परिवार का आकार बढ़ता जाता है अर्थात जैसे-जैसे परिवार में सदस्यों की संख्या, विशेषकर बच्चों की संख्या बढ़ती है, वैसे-वैसे माता-पिता एवं बच्चों में घनिष्ठ संबंध की संभावना कमती है और तब इससे बच्चों में धनात्मक, सामाजिक, सांवेगिक एवं संज्ञानात्मक विकास की गति मंद हो जाती है। दूसरे शब्दों में बच्चों में समाजीकरण (socialisation) मंद हो जाता है। परिवार के भौतिक वातावरण (physical environment) का भी प्रभाव बच्चों के समाजीकरण पर पड़ता है। जिस परिवार में संज्ञानात्मक उत्तेजना (cognitive stimulation) के आधुनिक साधन जैसे रेडियो, टेलीविजन, मैगजिन, अखबार आदि मौजूद रहते हैं, उस परिवार के बच्चों का समाजीकरण ऐसे परिवार के बच्चों की अपेक्षा तेजी से होता है जहाँ इन साधनों की कमी पाई जाती है।

(2) साथियों का समूह (Peer group)

 

– समाजीकरण के एक प्रमुख साधन के रूप में परिवार के बाद साथियों के समूह (peer group) का स्थान आता है। बालक जब थोड़ा बड़ा होकर चलने-फिरने लगता है, तो वह समान उम्र के अन्य बालकों के सम्पर्क में आता है और वह एक टोली (gang) का निर्माण करता है। इस टोली की विशेषता यह होती है कि इसमें सभी बालक करीब-करीब एक ही उम्र के होते हैं परंतु भिन्न-भिन्न परिवार के होते हैं। यह टोली दो उम्र-स्तरों (age levels) पर अधिक देखने को मिलती हैं स्कूल में प्रथम बार प्रवेश करने के पहले की उम्र के बालकों की टोली (preschool gang) तथा स्कूल के साथियों की टोली (school gang)। प्राक्स्कूल टोली (preschool gang) के बालक जिनकी उम्र 3 से 5 साल के बीच होती है, आपस में मिलकर भिन्न-भिन्न तरह के खेल खेलते हैं जिनमें कल्पनात्मक खेल (imaginative play) का महत्त्व बालकों के समाजीकरण में काफी होता है। हेथरिंगटन तथा पार्क (Hethrington & Parke, 1979) के अनुसार बालकों में कल्पनात्मक खेल द्वारा उनका समाजीकरण तीव्रता से होता है क्योंकि इस खेल में बालक कल्पनात्मक रूप से भिन्न-भिन्न तरह की भूमिका करते हैं जिससे उन्हें भूमिका से संबंधित नया-नया अनुभव होता है जो उन्हें सामाजिक व्यवहार को सीखने में मदद करता है। चार्ल्सवर्थ तथा हार्टअप (Charlesworth & Hartup, 1967) के अनुसार इस उम्र के बालको की टोली में प्रायः एक बालक दूसरे पर अधिक ध्यान देता है तथा दूसरे का अनुमोदन (approval) एवं स्वीकृति (acceptance) प्राप्त करने की कोशिश करता है। इसका परिणाम यह होता है कि इन बालकों में सामाजिक सहयोग (social cooperation) की भावना जगती है। जब बालक बड़े होकर स्कूल में प्रवेश करते हैं और वहाँ जो अपनी टोली बनाते हैं उसका समाजीकरण पर प्रभाव प्राक्स्कूल टोली (preschool gang) की अपेक्षा अधिक पड़ता है। स्कूल की टोली बालकों को लोकतांत्रिक (democratic) होना सिखाती है, स्वार्थीपना (selfishness) तथा समाजविरोधी विचारों से ऊपर उठकर एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य करना सिखाती है तथा साथ-ही-साथ उनमें प्रतियोगिता (competition) की भावना उत्पन्न करके अपनी योग्यताओं एवं क्षमताओं को बढ़ाने का मौका देती है। हेभिगहर्स्ट (Havighurst, 1972) ने एक अध्ययन किया जिसके आधार पर उन्होंने निम्नांकित चार तरीकों का वर्णन किया है जिनके सहारे साथियों का समूह (peer group) बालको को समाजीकृत (socialised) करता है

(i) साथियों का समूह भिन्न-भिन्न परिवार के बालकों को एक-दूसरे के नजदीक आने का मौका देता है तथा उन्हें एक सामाजिक रूप से अनुमोदित व्यवहार करने की प्रेरणा देता है।

(ii) साथियों का समूह बालकों में विवेकी अंतःकरण (rational conscience) विकसित करने में मदद करता है। विवेकी अंतःकरण (rational conscience) से तात्पर्य सामाजिक मूल्यों

(social values) को समझने तथा उनके अनुसार व्यवहार करना सीखने से होता है।

(iii) साथियों द्वारा प्राप्त अनुभवों (experiences) से बालकों में उचित सामाजिक मनोवृत्ति (social attitudes) विकसित होती है। बालक यह सीख लेते हैं कि अन्य व्यक्तियों के साथ उनका संबंध कैसा रहना चाहिए तथा सामाजिक जिन्दगी एवं समूह की क्रियाओं (activities) के साथ किस तरह से आनंद प्राप्त किया जा सकता है।

(iv) साथियों का समूह सदस्यों को सांवेगिक संतुष्टि (emotional satisfaction) देता है जिससे उनमें व्यक्तिगत स्वतंत्रता (personal independence) की भावना उत्पन्न होती है। बाद में चलकर ऐसे बालकों का समाजीकरण अधिक तेजी से होता है।

इस तरह स्पष्ट है कि साथियों का समूह (peer group) बच्चों को समाजीकृत (socialised) करने में कई ढंग से मदद करता है।

(3) स्कूल (School)

 

—समाजीकरण के साधन (agent) के रूप में स्कूल का भी महत्त्व काफी है। बालकों के समाजीकरण में स्कूल के महत्व को दिखाने के लिए शिक्षा मनोवैज्ञानिकों द्वारा कई अध्ययन किए गए हैं। अधिकतर शिक्षा मनोवैज्ञानिकों का मत है कि स्कूल सिर्फ बालको को शिक्षा ही नहीं देता है बल्कि सामाजिक मूल्यों (social values), सामाजिक संज्ञान (social cognitions), सामाजिक मानकों (social norms) के बारे में बताकर बालकों में समाजीकरण का बीज बोता है। स्कूल के विभिन्न पहलुओं जैसे उसको भौतिक संरचना (physical structure), शिक्षक, पाठ्यपुस्तक (textbook) आदि का समाजीकरण पर क्या प्रभाव पड़ता है, का अध्ययन किया गया है। कुछ स्कूलों का आकार काफी बड़ा एवं फैला होता है तथा कुछ स्कूल का आकार छोटा एवं सुसंबद्ध (compact) होता है। स्वभावतः बड़े आकारवाले स्कूल में छात्रों की संख्या छोटे आकारवाले स्कूलों की अपेक्षा अधिक होती है। बाकर तथा ग्रम्प (Barker & Grump, 1964) ने एक अध्ययन किया जिसमें उन उच्च विद्यालयों (high schools) को रखा गया जिनमें छात्रों की संख्या 35 से 2,287 तक थी। ये सभी स्कूल आर्थिक रूप से (economically). सांस्कृतिक रूप से (culturally) तथा राजनैतिक रूप से (politically) आपस में समान थे और सभी एक ही सरकार द्वारा नियंत्रित होते थे। परिणाम में देखा गया कि छोटे स्कूल में पढ़नेवाले बालक पाठ्येतर कार्यों  (extracurricular activities) में बड़े स्कूल में पढ़नेवाले छात्रों की अपेक्षा अधिक रूचि लेते थे जिससे उनका सामाजिक एवं सांवेगिक विकास अधिक तेजी से होता था। इतना ही नहीं, वर्ग (class) का आकार (size) यानी विद्यार्थियों की संख्या का भी प्रभाव छात्रों के सामाजिक व्यवहार पर पड़ता देखा गया है। वर्ग में छात्रों की संख्या कम रहने पर छात्र सक्रिय होकर वर्ग के कार्यों में भाग लेते हैं। इससे उनमें सामाजिक सहभागिता (social participation) की भावना जगती है।

स्कूल में शिक्षक (teacher) की भूमिका सबसे प्रधान होती है। शिक्षक का व्यक्तित्व तथा उनके द्वारा छात्रों के साथ होनेवाली अंत क्रियाओं (interactions) का बालकों के समाजीकरण पर सीधा प्रभाव पड़ता है। सामान्यतः यह देखा गया है कि यदि शिक्षक स्वयं सामाजिक शीलगुणों से पूर्ण है तथा बालकों के साथ स्नेहमयी अंत क्रियाएँ करते है, तो इससे बालकों में प्रोत्साहन तथा उत्साह उत्पन्न होता है और बालकों में सांवेगिक एवं सामाजिक समायोजन करने की क्षमता अधिक बढ़ जाती है। ऐसे बालकों का समाजीकरण तेजी से होता है। बालक शिक्षक के व्यवहारों का अनुकरण करते हैं। अतः यदि शिक्षक स्वयं ही कुसमायोजित (maladjusted) होते हैं तो वैसी परिस्थिति में बालकों में भी कुसमायोजन विकसित हो जाता है और उनके समाजीकरण की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है। हिल तथा एटोन (Hill & Eaton, 1977) ने एक अध्ययन किया जिसमें इस तथ्य की पुष्टि की गई है। जो शिक्षक बालकों के साथ पुरस्कारी अंत क्रिया (rewarding interaction) अधिक करते हैं, उनके व्यवहारों का अनुकरण (imitation) बालक अधिक करते हैं। कुछ लोगों ने इस अनुकरण की प्रक्रिया में बालकों के यौन (sex) एवं सामाजिक-आर्थिक स्तर (socio-economic status) को भी अधिक महत्त्वपूर्ण बताया है। इनलोगों का सामान्य मत यह है कि मध्य सामाजिक-आर्थिक वर्ग को लड़कियों शिक्षकों के व्यवहार का अनुकरण निम्न सामाजिक आर्थिक वर्ग के लड़कों की अपेक्षा अधिक करती है।

स्कूल में भिन्न-भिन्न प्रकार की पाठ्यपुस्तके (textbooks) छात्रों को पढ़ने के लिए दी जाती है। बालकों में सामाजिक मनोवृत्ति (social attitudes) एवं सांस्कृतिक मूल्यों (cultural values) का निर्माण धीरे-धीरे इन पाठ्यपुस्तकों में लिखे गए तथ्यों द्वारा होता है। बसबाई (Busby, 1979) ने अपने प्रायोगिक अध्ययन (experimental studies) के आधार पर यह बताया कि पाठ्यपुस्तकों मे लिखे गए तथ्यों द्वारा बालकों का समाजीकरण बहुत हद तक होता है तथा साथ ही साथ वे उपयुक्त यौन-रोल (sex role) भी करना सीख जाते हैं। इन तथ्यों से प्रभावित होकर लड़कों में आक्रमणशीलता, शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन, किसी सामाजिक समस्या के समाधान में आगे रहने की प्रवृत्ति आदि का विकास तथा लड़कियों में आज्ञापालन करने की प्रवृत्ति, व्यवहार में नम्रता, सुशीलता आदि का विकास होता है।

इस तरह हम देखते हैं कि स्कूल के भिन्न-भिन्न पहलुओं का प्रभाव भी बालकों के समाजीकरण पर पड़ता है। कुछ इसी ढंग का प्रभाव कॉलेज द्वारा वयस्क छात्रों के समाजीकरण पर भी पड़ता है।

(4) पास-पड़ोस (Neighbourhood)

 

– बालकों के समाजीकरण में पास-पड़ोस (neighbourhood) भी एक महत्त्वपूर्ण साधन (agency) है। पास-पड़ोस के व्यक्तियों के सम्पर्क में आने से व्यक्ति नए-नए व्यवहारों को सीखता है। आपस में मिलकर प्रायः पड़ोसियों द्वारा भिन्न-भिन्न तरह की सामाजिक समस्याओं पर विचार किया जाता है जिससे व्यक्ति नए-नए आदशों से परिचित होता है, और वह उसे चेतन या अचेतन रूप से अपने व्यक्तित्व में समावेश कर लेता है। इससे उसके समाजीकरण की प्रक्रिया तेजी से होने लगती है। व्यक्तियों में सहकारिता एवं परोपकारिता जैसे सामाजिक गुणों का भी विकास हो जाता है। शेरीफ (Sherif, 1980) के अनुसार माता-पिता के बाद बालकों के समाजीकरण पर पास-पड़ोस का ही प्रभाव सबसे अधिक होता है। स्कूल का स्थान बाद में आता है। जब बालक 3-4 वर्ष का हो जाता है, तो उसका समाजीकरण पास-पड़ोस द्वारा प्रभावित होने लगता है। जैसा परामर्श उसे पास-पड़ोस के व्यक्तियों से मिलता है, वैसा वह करने तथा सीखने के लिए तत्पर हो जाता है।

(5) जाति एवं वर्ग (Caste and class)

 

– भारत जैसे देश में जाति एक महत्त्वपूर्ण साधन (agency) है जिससे भी समाजीकरण की प्रक्रिया नियंत्रित होती है। जाति व्यक्ति के जन्म द्वारा निर्धारित होनेवाली एक व्यवस्था है जो अपने सदस्यों या व्यक्तियों के सामने कुछ निश्चित नियम तथा प्रतिबंध प्रस्तुत करती है। जाति का प्रभाव बालक के जन्म से मृत्यु तक होनेवाली सभी तरह की घटनाओं एवं संबंधों पर पड़ता है। जाति का नियम यह निर्धारित करता है कि व्यक्ति किस जाति की महिला को अपनी पत्नी स्वीकार करेगा, कौन-सा पेशा अपनाएगा, किस जाति के लोगों से अधिक घनिष्ठ संबंध रखेगा आदि-आदि। इतना ही नहीं, भारत में जाति प्रथा द्वारा व्यक्ति के सामाजिक एवं धार्मिक अधिकारों तथा कर्तव्यों का भी निर्धारण होता है तथा साथ-ही-साथ उनकी सामाजिक मनोवृत्ति (social attitude) तथा सामाजिक मूल्य (social value) बहुत हद तक इसी जाति प्रथा के नियमों द्वारा ही निर्धारित होते है। जाति के समान ही वर्ग व्यवस्था (class system) का भी समाजीकरण पर प्रभाव पड़ता है। भारतीय समाज मौलिक रूप से तीन वर्ग व्यवस्था में बेटा है— उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग तथा निम्न वर्ग। इन तीनों वर्गों की अपनी-अपनी विशेष सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति होती है जिसके आधार पर उनके सदस्यों में वर्ग चेतना (class consciousness) एवं एक निश्चित सामाजिक विचारधारा पनपती है। इन सबसे व्यक्तियों का समाजीकरण तीव्रता से होता है।

(6) भाषा (Language) –

 

जैसा कि हम जानते हैं, समाजीकरण (socialisation) मूलतः सामाजिक सीखना (social learning) की प्रक्रिया है। चाहे सामाजिक सीखना की प्रक्रिया हो या कोई भी अन्य दूसरी प्रक्रिया, उसका सम्पन्न होना इस बात पर निर्भर करता है कि बालकों का बौद्धिक विकास (intellectual development) हुआ है या नहीं। बालकों में बौद्धिक विकास भाषा द्वारा काफी प्रभावित होता है। भाषा के सहारे बालक एवं किशोर अपने विचार, आदर्श, संस्कृति एवं सामाजिक मूल्यों (social values) के बारे में खुलकर दूसरे को बताते है तथा दूसरे लोगों के विचारों, आदर्शों आदि के बारे में भी ज्ञान प्राप्त करते हैं। इस तरह के आदान-प्रदान से बालकों में समाजीकरण की प्रक्रिया तेजी से होती है। विशेषकर, बालकों में यह देखा गया है कि उनका समाजीकरण माता-पिता द्वारा प्रयोग किए गए शब्दों एवं वाक्यों द्वारा तेजी से होता है। माता-पिता भिन्न-भिन्न शब्दों को उपयुक्त भाव-भंगिमा के साथ बालकों के सामने बोलते हैं। बालक उन शब्दों को ध्यानपूर्वक सुनते हैं तथा उनकी भाव-भंगिमा का अवलोकन कर उस शब्द का अर्थ समझने की कोशिश करते हैं। इस प्रक्रिया द्वारा बालक नए-नए सामाजिक व्यवहार को करना धीरे-धीरे सीखते जाते हैं और उनका समाजीकरण होता जाता है।

इस तरह हम देखते हैं कि समाजीकरण के कई साधन (agencies) हैं। इन विभिन्न साधनों में परिवार, स्कूल तथा साथियों का समूह (peer group) अन्य साधनों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण माने गए हैं।

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