Social Development in Later Childhood | उत्तर बाल्यावस्था में सामाजिक विकास

Social Development in Later Childhood – उत्तर बाल्यावस्था में सामाजिक विकास

Social Development in Later Childhood उत्तर बाल्यावस्था (later childhood) 6 साल की अवस्था से प्रारंभ होकर 12-13 साल की उम्र  तक की होती है। इस अवस्था में बालकों का किसी स्कूल में दाखिला (admission) हो जाता है और वे औपचारिक शिक्षा प्रारंभ कर देते है यह है कि यह अवस्था शिक्षक एवं मनोवैज्ञानिकों के लिए काफी महत्वपूर्ण होती है। इस अवस्था को टोली उम्र (gangage) भ जाता है क्योंकि बालक अपनी उम्र के साथियों की टोलियों में समय बिताना अधिक पसंद करता है और अधिकाधिक समय इसी टोली में बिताता है। अतः इस अवस्था में बालक के समाजीकरण में माता-पिता से अधिक शिक्षकों एवं टोलियों (gangs) का प्रभाव पड़ता है। हेभिगहरर्ट (Havighurt, 1972) के अनुसार टोली की क्रियाएँ (gang activities) निम्नांकित चार तरीकों से बालको समाजीकरण (Socialisation) की प्रक्रिया को बढ़ावा देती है

(i) टोली बालकों को अपनी उम्र के अन्य साथियों के साथ मिलने-जुलने के लिए सिखाती है तथा साथ-ही-साथ वह सामाजिक रूप से अनुमोदित ढंग से एक-दूसरे के प्रति व्यवहार  करना भी सिखाती है।

(ii) टोली बालकों को एक विवेकपूर्ण अंतःकरण (rational conscience) विकसित करने में मदद करती है जिससे उनमें विभिन्न प्रकार की सामाजिक एवं नैतिक मान्यताएँ (social and moral values) विकसित होने में मदद मिलती है।

(iii) टोली (gang) का अनुभव बालकों में उचित सामाजिक मनोवृत्ति (appropriate social attitude) विकसित करने में मदद करती है। उदाहरणस्वरूप, बालक अपनी टोली के अनुभवों के आधार पर यह सीखता है कि किसी दूसरे बालक को कैसे प्यार करना चाहिए और किस तरह वह सामाजिक समूह में प्रसन्न रह सकता है।

(iv) टोली में चूँकि एक बालक का दूसरे बालक के साथ गहरा सम्पर्क एवं अच्छी दोस्ती होती है, फलतः उसमें सांवेगिक संतुष्टि (emotional satisfaction) काफी अधिक होती है जिससे उसमे वैयक्तिक विभिन्नता (individual difference) उत्पन्न हो जाती है जो उसके समाजीकरण की गति को तीव्र कर देती है।

बालकों में टोली के अनुभव तथा वर्ग में शिक्षकों के साथ हुई अंतः क्रियाएँ कई तरह के सामाजिक व्यवहार (social behaviours) उत्पन्न करती है। ऐसे सामाजिक व्यवहारों का शिक्षा के दृष्टिकोण से अधिक महत्त्व बताया गया है क्योंकि इनसे उनकी शैक्षिक उपलब्धि सीधे प्रभावित होती है।

Social Development in Later Childhood के ऐसे प्रमुख सामाजिक व्यवहार निम्नांकित हैं

(1) सामाजिक अनुमोदन (Social approval)

– जब बालक अन्य बालकों की संगति या दोस्ती चाहने लगता है तब उस समय वह यह भी चाहने लगता है कि उसके मित्र द्वारा उसे सामाजिक अनुमोदन भी मिले अर्थात मित्र उसके व्यवहार, पोशाक, वाक् (speech) आदि की प्रशंसा करे तथा उसे अपनी स्वीकृति दें। इस तरह के सामाजिक अनुमोदन (social approval) प्राप्त करने के सिलसिले में अगर किसी कारणवश उसके घर का मानक (standard), स्कूल का मानक तथा साथियों के मानक में आपस में टकराव हुआ तो प्रायः बालक अपनी टोली के मानक के पक्ष में ही अपना विचार व्यक्त करता है। प्रयोगात्मक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि सामाजिक अनुमोदन प्राप्त करने की इच्छा उन्हीं बालकों में तीव्र होती है जिनमें असुरक्षा (insecurity) तथा अपर्याप्तता (inadequacy) की भावना अधिक होती है।

(2) अति संवेदनशीलता (Oversensitiveness)

 

– अति संवेदनशीलता बालकों में सामाजिक मान्यता (social acceptance) प्राप्त करने का एक तरीका है। अति संवेदनशील बालकों पर माता-पिता तथा उनके साथियों का ध्यान अधिक जल्दी चला जाता है। जब माता-पिता यह समझते हैं कि उनकी बातों से बालकों के अहं पर चोट पहुँची है तो उनमें खुद ही दोष भावना (guilt feeling) उत्पन्न होती है जिसे दूर करने के लिए वे बालकों पर अधिक ध्यान देना प्रारंभ कर देते हैं एवं दुलार प्यार भी अधिक दिखाते हैं। अति संवेदनशीलता घर के भीतर ही बालको द्वारा प्रायः दिखाई जाती है।

(3) संसूच्यता तथा प्रतिसंसूच्यता (Suggestibility and counter suggestibility)

 

– संसूच्यता का गुण एक ऐसा गुण है जिस बालक दूसरों के सुझाव या संसूचन (suggestion) द्वारा आसानी से प्रभावित हो जाता है। संसूच्यता का गुण दिखाकर बालक दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं तथा सामाजिक मान्यता (social acceptance) प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। ऐसे बालक यह सोचते हैं कि वे दूसरों के सुझाव को यदि अक्षरशः मान लेते हैं तो इससे उन्हें निश्चित रूप से संबंधित बालक या व्यक्ति द्वारा मान्यता मिल जाएगी।

प्रतिसंसूच्यता की स्थिति में बालक दूसरों द्वारा दिए गए सुझाव के ठीक विपरीत सोचता तथा करता है। 3-4 साल की उम्र में बालकों द्वारा दिखाई गई निषेधवृत्ति (negativism) के समान ही बड़े बालकों में प्रतिसंसूच्यता का गुण होता है। उत्तर बाल्यावस्था में बालक अपनी टोली के सदस्यों द्वारा दिए गए सुझाव को तो हू-ब-हू मान लेता है, परंतु वयस्कों के सुझावों को ठुकराकर ठीक उसके विपरीत कार्य करता है। शिक्षकों को वर्ग में ऐसे बालकों पर विशेष रूप से ध्यान देना पड़ता है क्योंकि इन बालकों में विरोध करने की प्रवृत्ति अधिक होने से उनके प्रति सतर्कता अधिक बरतनी पड़ती है।

(4) प्रतिस्पर्द्धा (Competition)

— उत्तर बाल्यावस्था में बालकों में तीन तरह की प्रतिस्पर्द्धा (competition) पाई जाती है। पहली प्रतिस्पर्द्धा टोली के भीतर सबसे अधिक सम्मान (prestige) पाने के लिए आपस में होती है, दूसरी प्रतिस्पर्द्धा बालकों की एक टोली से दूसरी टोली के बीच होती है और तीसरी प्रतिस्पर्द्धा बालकों की टोली तथा समाज के संगठित एजेन्सीज (organised agencies) के बीच होती है। इन तीनों तरह की प्रतिस्पर्द्धा का प्रभाव बालकों के समाजीकरण (socialisation) पर अलग-अलग ढंग से पड़ता है। पहली तरह की प्रतिस्पर्द्धा से बालकों में कलह (quarel) तथा विद्वेष (hostility) का विकास होता है। दूसरी तरह की प्रतिस्पर्द्धा से बालकों में एकता (solidarity) तथा आपस में सहयोग (cooperation) करने की भावना उत्पन्न होती है तथा तीसरी तरह की प्रतिस्पर्द्धा यदि रचनात्मक ढंग से (constructively) की गई तो इससे भी बालकों में स्वतंत्र (independent) होने का गुण विकसित होता है।

(5) अच्छा क्रीड़ा- कौशल (Good sportsmanship)

– अच्छा क्रीड़ा कौशल (sportsmanship) से तात्पर्य एक ऐसे व्यवहार से होता है जिसमें बालक खेलकूद में अन्य बालकों के साथ काफी सहयोग एवं ईमानदारी की भावना दिखाता है। इससे बालकों में उदारशीलता का शीलगुण विकसित होता है। इस तरह के कौशल (skill) की शुरूआत घर में ही होती है परंतु इसका विकास बालकों की टोली में अन्य बालकों के साथ मिलकर खेलने से ही होता है। वैसे बालक जो यह चाहते हैं कि उनमें अच्छा क्रीड़ा-कौशल (good sportsmanship) विकसित हो, उन्हें काफी उदार (generous) होना चाहिए और उनकी उदारता इस हद तक हो कि यदि वे खेल में हार (lose) भी जाते हैं तो जीते हुए (winners) बालकों के साथ मिलकर आनंद उठाएँ। ऐसा मालूम हो कि उन्हें हारने का कोई गम ही नहीं है।

(6) उत्तरदायित्व (Responsibility)

— बालक यदि सौंपे गए कार्यों को ठीक ढंग से कर लेते हैं ले ऐसा समझा जाता है कि उनमें उत्तरदायित्व (responsibility) का गुण है। बोसाई तथा बौल (Bosard & Boll, 1966) के अध्ययन के अनुसार उत्तरदायित्व एक ऐसा सामाजिक व्यवहार (social behaviour) है जिसकी शुरुआत घर में बालकों के प्रारंभिक प्रशिक्षण (early training) मे होती है। ऐसे बालक जिनमें उत्तरदायित्व का व्यवहार घर में अच्छी तरह विकसित हो जाता है, वे अपनी टोलियों (gangs) में भी ठीक ढंग से समायोजन (adjustment) कर लेते हैं और ऐसे ही बालक अपनी टोली के नेता (leader) भी बन जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि उनमें आत्म-विश्वास (self-confidence) अधिक बढ़ जाता है और वे कठिन कार्यों का भी उत्तरदायित्व लेने में हिचकिचाते नहीं हैं। प्रयोगात्मक अध्ययनों के आधार पर यह साबित हो गया है कि बालकों में उत्तरदायित्व (responsibility) का विकास धीरे-धीरे किया जाए, तो यह अति उत्तम होता है। दूसरे शब्दों में, बालकों को पहले साधारण कार्य करने का उत्तरदायित्व देना चाहिए और फिर धीरे-धीरे कठिन तथा जटिल कार्यों का उत्तरदायित्व देना चाहिए। अगर बहुत तरह का उत्तरदायित्व बालकों पर एक हो साथ सौंप दिया जाता है, तो वे इसे ठीक ढंग से निभा नहीं पाते और उनका आत्मविश्वास भी खत्म हो जाता है।

(7) सामाजिक सूझ (Social insight)

– सामाजिक सूझ का तात्पर्य सामाजिक परिस्थितियों का ठीक ढंग से प्रत्यक्षण (perception) करने, उनका अर्थ समझने तथा साथ-ही-साथ उनसे संबंधित व्यक्तियों को ठीक ढंग से समझने से होता है। सामाजिक सूझ बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि बालक कहाँ तक किसी सामाजिक परिस्थिति में स्वयं को पूर्णतः रखकर उस परिस्थिति को समझ पाता है तथा उस परिस्थिति के लोगों की मनोवृत्ति तथा संवेग का अर्थ समझ पाता है। उम्र बीतने के साथ-ही-साथ बालकों में सामाजिक सूझ अंशतः मानसिक परिपक्वन (mental maturation) के कारण और अंशतः नई-नई सामाजिक अनुभूतियों (social experiences) के कारण अधिक बढ़ती जाती है। प्रयोगात्मक अध्ययनों के आधार पर यह पता चला है कि जिन बालको का सामाजिक प्रत्यक्षण (social perception) ठीक होता है, उनमें सामाजिक अभियोजन करने को क्षमता अधिक होती है। फलतः, उनको अन्य बालकों द्वारा मान्यता (acceptance) अधिक मिल जाती है और उनकी लोकप्रियता (popularity) बढ़ जाती है। लोकप्रियता बढ़ने से सामाजिक सूझ (social insight) बढ़ जाती है।

मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह भी पता चला है कि उत्तर बाल्यावस्था (later childhood) में टोली (gang) का कुछ कुप्रभाव भी बालकों पर पड़ता है जिससे उनके समाजीकरण की प्रक्रिया या सामाजिक विकास (social development) की प्रक्रिया धीमी पड़ जाती है। शिक्षकों को इन कुप्रभावों से अवगत होना आवश्यक है ताकि वे वर्ग में बालकों को इन कुप्रभावों से बचाने के उपाय कर सकें।

Social Development in Later Childhood के इन कुप्रभावों में निम्नांकित प्रमुख हैं

(1) अक्सर देखा गया है कि बालक अपनी टोली (gang) के सदस्यों के बहकावे में आकर घर में माता-पिता के साथ बगावत कर बैठते हैं। ऐसी अवस्था में वे न तो स्कूल का गृहकार्य (home task) ही ठीक से कर पाते है और न ही पारिवारिक जवाबदेही ही ठीक ढंग से निभा पाते हैं। फलतः, ऐसे बालकों का समाजीकरण धीमा हो जाता है।

(2) टोली की कुछ सामाजिक अनुभूतियाँ (social experiences) इस प्रकार की होती है जिनसे कुछ लड़कों तथा कुछ लड़कियों में परस्पर वैरपूर्ण (antagonism) संबंध हो जाता है। टोली के वरीय सदस्य (senior members) तो अपने विपरीत लिंग के व्यक्ति के साथ दोस्ती पसंद करते हैं, परंतु इसका विरोध टोली के कनीय सदस्य द्वारा किया जाता है। इस तरह टोली कुछ बालक एवं बालिकाओं में यौन प्रतिरोध का भाव उत्पन्न कर देती है।

(3) टोली (gang) बालकों में पूर्वाग्रह या पूर्वधारणा (prejudice) भी उत्पन्न कर देती है। टोली के सदस्य टोली के बाहर के सदस्यों को धर्म, भाषा, जाति, प्रजाति आदि के आधार पर अपने से भिन्न समझते हैं और एक विशेष नकारात्मक मनोवृत्ति (negative attitude) बना लेते हैं। इससे भी बालकों का सामाजिक विकास (social development) प्रभावित हो जाता है।

इस तरह स्पष्ट है कि उत्तर बाल्यावस्था में बालकों का सामाजिक विकास एक खास ढंग से होता है। शिक्षकों से ऐसे सामाजिक विकास का ज्ञान अपेक्षित है क्योंकि ऐसा नहीं होने से वे शिक्षार्थियों (learners) को उचित दिशानिर्देश नहीं दे पाएँगे।

महत्वपूर्ण लिंक

Concept of Health | स्वास्थ्य की अवधारणा

Principles of Motor Development | क्रियात्मक विकास के नियम

Social Development in Early Childhood 

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *